नेहरू के बिना हम अज़नबी देश में होते !
प्रस्तुति – सिकंदर हयात
( यह लेख नेहरू जन्म शताब्दी पर 1989 में भारत के आज़ादी के बाद के पांच बेहतरीन संपादको में से एक माने जाने वाले सवर्गीय राजेंदर माथुर जी ( 1935 -1991 ) ने लिखा था उनकी पुस्तक ” भारत एक अंतहीन यात्रा से ”. साभार )
जवाहरलाल नेहरू को आज सौ साल हो गए , लेकिन उनके जन्म की शतवार्षिकी उस सहज़ता से नहीं मनाई जा सकती जैसे महत्मा गांधी या विवेकानंद या लोकमान्यतिलक की शताब्दियाँ हमने मनाई . कारण स्पष्ट हे राजीवगांधी का परधानमंत्री होना नेहरू की सव्छ्न्द सराहना और ईमानदार मूल्यांकन में बाधा डालता हे ………………… इस बाधा के बावजूद यदि हम नेहरू शताब्दी पुरे साल नहीं मानते हे तो यह एक जाहिल एहसानफ़रामोशी होती , क्योकि बीसवी सदी में गांधी के बाद यदि किसी एक हिंदुस्तानी का इस देश की याददाश्त पर सबसे ज़्यादा हक़ और क़र्ज़ हे तो वह नेहरू ही हे नेहरू यदि आज़ादी के आंदोलन के दिनों में गांधी के सिपाही नहीं होते तो हमारे सवतंत्रता आंदोलन का नक्शा अलग होता . और यदि आज़ादी के बाद के सत्रह वर्षो में वह आज़ाद भारत के प्रधानमंत्री नहीं होते तो , भारत का सामाजिक और राजनितिक भूगोल वह नहीं होता जो आज हे . तब इस देश की राज़नीति के नदी पहाड़ और जंगल सब अलग हो जाते , और हम मानो एक अलग गृह पर साँस ले रहे होते . लाखो लोगो के मन में आज भी एक गहरी शिकायत हे की इस नेहरू निर्मित भारत के पर्यावरण में साँस लेने के लिए परमपिता परमात्मा ने हमें क्यों जन्म दिया हे . काश इस देश का पर्यावरण कुछ और होता . लेकिन यह शिकायत भी नेहरू की विश्वकर्मा – भूमिका को एक गहरी श्रद्धांजलि ही हे , क्योकि अंततः यह उस भारत की कोख में लोट जाने की कामना हे जिसे किसे ने देखा नहीं हे , लेकिन जिसके बारे में कोई भी व्यक्ति कुछ भी कल्पना कर सकता हे .
” बगावती शिष्यतंत्र ” – नेहरु जैसा सिपाही यदि गांधी को आज़ादी के आंदोलन में नहीं मिलता , तो 1927 28 के बाद भारत के नौजवानो को अपनी नाराज़ और बगावती अदा के बल पर गांधी के सत्याग्रही खेमे में खींच खींच कर लाने वाला कौन था ? नेहरू ने उन सारे नौजवानो को अपने साथ लिया जो गांधी के तौर तरीको से नाराज़ थे , और बार बार उन्होंने लिख कर , बोल कर , अपनी असहमति का इज़हार किया . उन्होंने तीस की उस पीढ़ी को जबान दी जो बोल्शेविक क्रांति से प्रभावित होकर कांग्रेस के बेजुबान लोगो को लड़ाकू हथियार बनाना चाहती थी . लेकिन यह सारा काम उन्होंने कांग्रेस की केमिस्ट्री के दायरे में किया और उसका सम्मान करते हुए किया . यदि वे 1932 -33 में सनकी लोहियावादियो की तरह बर्ताव करते , और अपनी अलग समजवादी पार्टी बनाकर गांधी से नाता तोड़ लेते , तो सुभाष चन्द्र बोस की तरह कट कर रह जाते . उससे समाजवाद का तो कोई भला होता नहीं , हां गांधी की फ़ौज़ जरूर कमजोर हो जाती . गांधी से असहमत होते हुए भी नेहरू ने गांधी के सामने आत्मसमर्पण किया , क्योकि अपने को समझ न आने वाले जादू के सामने अपने बिछा देने वाला भारतीय भक्तिभाव नेहरू में शेष था , और अपने अक्सर बिगड़ पड़ने वाले पट्ट शिष्य को लाड करना गांधी को आता था . बकरी का दूध पिने वाला कोई सेवाग्राम जूनियर गांधी तीस के दशक में ना तो युवक ह्रदय सम्राट का पद अर्जित कर सकता था , और ना महात्मा मोहनदास उसे अपना उत्तराधिकारी घोषित कर सकते थे क्योकि आँख पर पट्टी बाँध कर लीक पर चलने वाले शिष्यों की सीमा महात्मा जी खूब समझते थे . नेहरू और गांधी के इस दवंदात्मकसहयोग ने आज़ादी के आंदोलन के ताने बाने को एक अधभुत सत्ता दी और गांधी का जादू नेहरू के तिलस्म से जुड़ कर ना जाने कौन सा बर्ह्मास्त्र् बन गया . खरा और सौ टंच सत्य जब दूसरे सौ टंच सत्य के साथ के साथ अपना अहं त्यागकर मिलता और घुलता हे तब ही ऐसे योगिक बनते हे , जैसे गांधी और नेहरू के सहयोग से बने . इसकी तुलना आज के राजनितिक जोड़तोड़ से कीजिये तो आपको फर्क समझ में आ जाएगा ………. .
”गांधी का भारत ” 1947 के बाद नेहरू भारत को उस रस्ते पर नहीं ले गए , जिस रस्ते गांधी की सौ साला जिंदगी में शायद वह जाता वे ऐसा कर भी नहीं सकते थे क्योकि गांधी की अनुपस्तिति में गांधी का रास्ता किसी को मालूम नहीं था खुद गांधी के जीते जी किसी को पता नहीं होता था की गांधी का अगला कदम क्या होगा . अपनी अंतरात्मा के टोर्च से वे अँधेरे में अपना अगला कदम टटोलते थे यह तोच नितांत निजी और वैयक्तिक होता था ………………………. नेहरू गांधी की राह पर चले हो या नहीं हो , लेकिन यह मानना मूर्खतापूर्ण होगा की कांग्रेस यदि नेहरू के बजाय पटेल या राजेन्द्र परसाद या आचार्य कृपलानी के रस्ते पर चलती , तो वह सच्चा गाँधीवादी रास्ता होता . इसका मतलब यह हुआ की सारी कांग्रेस गाँधीवादी थी और केवल नेहरू गांधी विमुख थे इस विकृत स्थापना में कोई दम नहीं हे. .
”बागडोर और भूगोल ” आज़ादी के बाद के वर्षो में यदि बागडोर नेहरू के हाथ में नहीं होती , तो इस देश का राजनीतिक – सामाजिक भूगोल , उसकी नदी जंगल और पहाड़ किस माने में भिन्न होते ? सबसे पहले तो इस बात का श्रय नेहरू को दे की उन्होंने अपने चरित्र और विचारो के विपरीत कांग्रेस को बनाय रखा . पहले वे अक्सर लिखा करते थे की आज़ादी की लड़ाई सफल होने के बाद कांग्रेस जैसे सर्वदलीय सयुंक्त मोर्चे की कोई जरुरत नहीं रह जायेगी वह टूटेगी और अलग अलग विचारधारा वाली पार्टियो में बट जायेगी जबतक अंग्रेज़ो से लड़ाई चल रही थी तब तक बिड़ला बज़ाज़ और मिल मज़दूर जमींदार किसान इकट्ठे होकर कांग्रेस में रह सकते हे लेकिन उसके बाद इतने बेमेल निहित स्वार्थो की प्रति सरकार कैसे चलाएगी वह उत्तर जायेगी या दक्षिण वह अमीरो का साथ देगी या अमीरो का ? गांधी के दिमाग में भी यह प्रशन उठा था , लेकिन वे शायद एक सत्ता कांग्रेस के मुकाबले एक रचनातमक सेवामुखी कांग्रेस कायम करने की बात सोच रहे थे ……………… कांग्रेस को कायम रख कर नेहरू ने विलक्षण समझ का परिचय दिया , यह इसी से स्पष्ट हे की आज़ादी के 42 वर्ष बाद भी इस देश में पश्चमी तर्ज़ की पार्टिया नहीं बन पायी हे …………. इस माने में नेहरू ने सवतंत्रता के बाद कांग्रेस की सार्थकता का पुनराविष्कार किया उन्होंने पाया की कांग्रेस से टूटी कोई एकांगी पार्टी देश को जोड़े रखने और आगे ले जाने का काम नहीं कर सकेगी नेहरू की इस स्थापना पर देश ने एक मुहर नेहरू की मौत के बाद 1971 में लगाई जब मरणासन्न कांग्रेस को उसने फिर से जिलाकर खड़ा कर दिया . इससे लगता हे की गांधी यदि कांग्रेस को खत्म कर देते तो भारत की जनता उसे किसी न किसी शक्ल में पुनर्जीवित कर देती . ………………………………………
नेहरू के बिना क्या भारत वैसा लोकतान्त्रिक देश बन पता जैसा की वह आज हे ? आपको 1947 में किस नेता में लोकतंत्र की बुनियादी आज़ादियो के प्रति वह सम्मान नज़र आता हे , जो नेहरू में था ? हरिजन से रक्त में एकता महसूस करने वाले नेता कितने थे ? धर्म के ढकोसलों से नफरत और सच्ची रूहानियत के प्रति लगाव कितनो में था ? विज्ञान के प्रति इतना भोला उत्साह आप उस ज़माने में और कहा पाते हे ? भारत के आर्थिक विकास के बारे में क्या किसी और नेता के पास दर्ष्टि थी ? भारत की सारी विविधताओं को इतना स्नेह क्या किसी और नेता ने दिया ? नेहरू नहीं होते तो विभाजन के तुरंत बाद क्या भारत हिन्दू राष्ट्र बनने से बच पाता .
”गांधी की जगह गणदेवता ” भारत 15 अगस्त के बाद लोकतान्त्रिक ही होगा ये इस देश की जन्मपत्री में तो नहीं लिखा था .अनुमान लगाना व्यर्थ हे , लेकिन सोचिये की यदि सरदार पटेल को सावधीनता के बाद सतरह वर्षो तक नेहरू की लोकप्रियता और उनका पद मिला होता तो क्या वे माओतसे तुंग या स्टालिन के भारतीय संस्करण नहीं हो जाते ? सुकर्णो नासिर टिटो अंकुर्मा आदि ने अपनी लोकप्रियता का क्या किया ? देश के धीमेपन से असंतुष्ट होकर जवाहरलाल के सामने क्या यह विकल्प नहीं रहा होगा की लोकतंत्र को एक तरफ रख कर कुछ साल चाबुक चलाया जाए , ताकि देश तेज़ दौड़कर एक बार सबके साथ आ सके ? यदि वे चाबुक चलते तो क्या एक नशीला उत्साह सारते देश में पैदा नहीं होता जिसके रहते लोकतंत्र की हिमायत एक जनद्रोही हरकत नज़र आती ? लेकिन जैसे गांधी के सामने नेहरू ने अहंविहीन आत्मसमर्पण कर दिया था . उसी तरह भारत के लोकतंत्र के सामने उन्होंने हमेशा अहंविहीन आत्मसमर्पण किया . गांधी की जगह गणदेवता ने ले ली . कहा नहीं जा सकता की नेहरू नहीं होते तो भी ऐसा ही होता . और यदि भारत में लोकतंत्र नहीं होता , तो क्या हम अपने आपको एक बिलकुल अलग देश में नहीं पाते यह कहा जा सकता हे की लोकतंत्र के आलावा कोई और प्रणाली होती तो वह भारत जैसे बेमेल देश को एक नहीं रख पाती . तानाशाही का प्रेशर कुकर होता , तो देश जल्दी टूट जाता लेकिन यह दर्ष्टि तो1970 या 80 की हे 47 में तो यह माना जा सकता था की लोकतंत्र में इतना हंगामा हे , खींचतान हे , दंगे फसाद हे , अराजकता हे की भारत जैसे भानुमति के कुनबे में यह खुराफाती चीज़ अगर छोड़ दी गई तो न टूटने वाला देश भी टूट जाएगा . आखिर इसी बुते पर तो चर्चिल आदि कहा करते थे की अंग्रेज़ो के जाने के बाद भारत वासी स्वराज चला नहीं पाएंगे . स्वराज के बारे हम भारतीयों का हीनभाव ही तानाशाही को जन्म दे सकता था उस नियति से हम बच सके इसका सारा श्रेय नेहरू को हे.
”आर्थिक दृष्टि ” …………………… सिर्फ नेहरू में देश के पिछड़ेपन का अहसास था और एक दर्ष्टि और छटपटाहट थी . गांधी की तरह एक सेवामुखी कांग्रेस तो उन्होंने नहीं बनाई , और न कम्युनिस्ट देशो की तरह एक समर्पित काडर तैयार किया , लेकिन अपनी लोकतान्त्रिक सरकार की सारी शक्ति उन्होंने विकास के एक माडल पर अमल करने को झोंक दी बड़े बाँध , सिचाई योजनाय अधिक अन्न उपजाओ , वन महोत्सव सामुदायिक विकास , राष्ट्रिय विस्तार कार्यकर्म पंचवर्षीय योजना , भरी उद्दोग , लोहे और बिज़ली और खाद के कारखाने , नए स्कूल और अफसर , लाखो नई सरकारी नौकरियां , समाजवादी समाज रचना . यह सारा सिलसिला नेहरू की अदम्य ऊर्जा से शुरू हुआ था नेहरू की समाजवादी दर्ष्टि का यहाँ भारत के मध्यम वर्ग की आकांक्षाओं के साथ गज़ब का मेल हुआ ……………………………… चीन और रूस के उदाहरणों से स्पष्ट हे की करोड़ो लोगो को जेल में ठुसे बगैर , जान से मारे बगैर या उन्हें सजा काटने को अरुणचल भेजे बगैर जो आतंकविहीन आर्थिक सरप्लस भारत ने पैदा किया हे और इस सरप्लस के निवेश से जो प्रगति की हे , यह आश्चार्यजनक रही . इतनी सीधी उंगली से इतना ज़्यादा गहि निकलने का काम किसी और देश ने किया हो तो कर्प्या नाम बताय . नेहरू नहीं होते तो हम जापानी टूथपेस्ट खरीद रहे होते या हमारे वकीलों प्रोफेसरों को कोई हुकूमत धान के खेतो में अनुभव प्राप्त करने के लिए भेज देती . नेहरू के बिना हमारी रोजमर्रा की जिंदगी यहाँ भी अलग होती . ”नया इंसान ” और अंत में धर्मनिरपेक्षता जब नेहरू इसकी चर्चा करते थे तब दरअसल वे एक नया इंसान भारत की जमीं पर जन्मते देखना चाहते थे . वे ही क्यों गांधी की भी सारी कोशिश भारत में एक नए मनुष्य को जन्म देने की थी . राममोहनराय से लेकर राममनोहर लोहिया तक हर महत्वाकांक्षी हिंदुस्तानी ने एक नए मनुष्य का सपना देखा हे , और डेढ़ सौ पुरानी यह आदत पिछले बीस पचीस वर्षो में ही विलुप्त हुई हे नेहरू का नया मनुष्य रवीन्द्रनाथ ठाकुर की प्रसिद्ध कविता का मनुष्य हे लेकिन जो युगपुरुष एक नई मनुष्यता का स्वप्न पालता हे उसे समझ ही नहीं आता की आदमी संकीर्ण क्यों हे , क्षुद्र क्यों हे अंधविश्वासी क्यों हे नकली कसौटियों पर अपने आपको बाटने वाला और लड़ने वाला क्यों हे , नफरत से अँधा होने वाला क्यों हे ? हर मसीहा की हर कोशिश के बावजूद नया मनुष्य बार बार पुराना होना क्यों पसंद करता हे ? यह एक लम्बा विषय हे और हम नहीं जानते की गांधी नेहरू के होने का कोई असर हम पर पड़ा हे या नहीं , और हम नए इंसान बने हे या नहीं .लेकिन हम जैसे हे उससे बहुत बुरे अगर नहीं हे , तो इसका श्रेय शायद उन्ही के प्रयासों को देना होगा
संघियो की घिनोनी बाते -के जी गांधी ने चिढ़ कर नेहरू को पी एम बनवा दिया था असल में 1946 पूंजीपतियों व्यापारियों इज़ारेदारो ने नेहरू की समाजवाद की टर्र टर्र से चिढ कर अचानक पटेल साहब का नाम कांग्रेस में बढ़वा दिया था वार्ना दुनिया जानती थी की कोई नेहरू के आस पास भी न था तीस के दशक से ही तय था की नेहरू ही आज़ाद भारत के पी एम वो कांग्रेस के सबसे ऊर्जावान लोकप्रिय विद्वान नेता थे पटेल साहब को तो भारत से बाहर कोई जानता तक ना था जबकि नेहरू दुनिया भर में खासकर वैश्विक बुद्धिजीवियों में पहचाने जाते थे मेरा ख्याल ये हे की 1937 – 46 के चुनावो में कोंग्रेसियो ने पैसा लेने के बाद सव्भाविक हे पैसे वालो की पसंद पटेल साहब को पी एम के लिए प्रस्तावित किया होगा यु ही उनका दिल रखने के लिए ये कोई भरषटाचार की बात ना थी ज़ाहिर हे पैसा तो चाहिए ही होता हे फिर ज़ाहिर हे जिनसे पैसा लिया जाता हे उनकी कुछ बात सुननी भी पड़ती ही हे कांग्रेस आज़ादी से पहले ये सब करती थी इसी से जुड़े कुछ मज़ेदार किस्से बेदाग़ और लोकप्रिय नेता महावीर त्यागी जी की पुस्तक ” आज़ादी का आंदोलन हँसते हुए आंसू ” में पढ़ लीजिये तो यही राज़ था 12 कांग्रेस कमेटियों के पटेल नाम प्रस्तावित करने का मगर फिर गांधी के सामने किसी की चु की मजाल नहीं हुई और देश का सर्वाधिक लोकप्रिय ऊर्जावान और सवस्थ ( सरदार साहब को तब तक ही २ दिल के दौरे पड़ चुके थे ) लोकतान्त्रिक सेकुलर उदारवादी समाजवादी विद्वान नेता पी एम के रूप में मिला जिसने दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंन्त्रिक सेकुलर देश रचा नेहरू ना होते तो भारत भी ना होता इसमें कोई शक ही नहीं हे
Shailendra Kumar – सिकंदर हयात • 2 days ago
आपने संघ की दृष्टि से न भारत को कभी देखा है न कभी पढ़ा है। केवल उसके विरोधियों की दृष्टि से ही उसके दर्शन को देखा है कुछ संघ के नजरिये से भारत को देखिये। किसी भी सत्य के कई पहलु होते है। यहाँ देखिये सिकंदर हयात Shailendra Kumar • a day ago
में सभी पहलु पढता और सुनता हे वैसे तो और बाते हे मगर आप एक बात अच्छी तरह समझ लीजिये उपमहादीप में 90 करोड़ हिन्दू और 60 करोड़ मुस्लिम हे इनके बीच कही भी कोई भी कटटरपन्ति तत्व मज़बूत होंगे तो उसकी सव्भाविक नियति हे की वो दूसरे से जरूर भिड़ेंगे और तनाव फैलाएंगे ये बिलकुल नेचुरल हे ऐसा ही होगा आपको भाजपा को वोट देना हो तो दीजिये मगर संघ बज़रंग से दूर ही रहिये जैसा की आप ने खुद ही 2011 में मुझे बताया था की आप शायद एक मध्यमवर्गीय परिवार से आते हे जो आर्थिक संकट से घिरा हे जैसा की होता हे कटटरपन्तियो के हरावल दस्ते निम्न या मध्यमवर्गीय ही होते हे गरीब के पास तो समय नहीं होता और अमीर इन सबका इस्तेमाल ही करता हे हिन्दू मुस्लिम कटट्रपंथ को मध्यमवर्गीय लोग ही बढ़ावा देते हे और सोचते हे की वो महान देशभक्त या धर्मभक्त हे में आपको सलाह दूंगा की अपना काम धंधा कीजिये कुछ करना ही हे तो सेकुलरिज़म समाजवाद ( नया ) उदारवाद को मज़बूत करिये इन कटरपन्तियो के चक्कर में मत पड़िये कुछ हासिल ना होगा चाहे तो अगले चार साल में महसूस कर लीजिये की चाहे मोदी हो या कांग्रेस के राज़ में आपका जीवन तो जस का तस हे
अफज़ल भाई नेहरू की महानता का एक किस्सा ए एम यु से भी जुड़ा हे जो एक महान शिक्षण संस्थान हे मगर इसमें कोई शक ही नहीं हे की पाकिस्तान और टू नेशन थ्योरी के निर्माण में इसका अहम रोल रहा था जो लीग 1937 में बुरी तरह चुनाव हारी थी उस लीग को 1946 के चुनाव में भारी सफलता मिली मुसलमानो के तो कहते हे की 93 % वोट लीग को मिले थे ये चमत्कार किसने किया था ? असल में भारतीय मुस्लिम समाज पर अलीगढ यूनिवर्सिटी से अंग्रेजी पढ़े लिखे लोगो का भारी प्रभाव था ( आज भी हे ) जैसा की मेने कई बार पाक टी वि पर सुना भी की अलीगढ़ के बच्चे पुरे भारत में फैल गए और लीग को वोट दिलवाए ( राही मासूम रजा आधा गाव का एक दर्शय ) एक बार तो जिन्ना जब अलीगढ़ में आये तो छात्रों ने उनके घोड़ो को खोल दिया और खुद खींच कर उनकी बग्गी स्टेशन से यूनिवर्सिटी तक लाये ( हालांकि मेरा अंदाज़ा हे की ये नौजवान पाकिस्तान में बिना कम्पीटीशन मिलने वाली सरकारी नौकरियों पदो के लिए उत्साहित थे इस्लाम तो इनका एक बहाना था ) तो ये था अब जब भारत आज़ाद हुआ तो आवाज़ उठने लगी की भारत विभाजन करने वाली इस यूनिवर्सिटी को बंद कर दिया जाए मगर महान उदारवादी नेहरू को पता था की भारत जैसे उस समय लगभग अनपढ़ देश में एक महान शिक्षण संस्थान को जो बरसो में और भारी संसधानो से तैयार होते हे उन्हें कुछ लोगो की करतूत के लिए मिटाना ठीक न होगा नेहरू ने ये कहकर ये मांग ठुकरा दी की ”इतनी अलीगढ यूनिवर्सिटी को हमारी जरुरत नहीं हे जितनी हमें इस महान यूनिवर्सिटी की जरुरत हे ”
Indresh Uniyal (India)
November 17,2014 at 10:10 PM GMT+05:3
अगर नेहरू न होते तो कश्मीर की समस्या न होती. हिन्द्स्तान का नक्शा इससे बड़ा होता.
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(Indresh Uniyal को जवाब )- sikander hayat
November 18,2014 at 11:31 AM GMT+05:30
एकदम बकवास नेहरू ना होते तो कश्मीर का बड़ा हिसा भारत को ना मिलता नेहरू की गुडविल से कश्मीर भारत को मिल सका वर्ना मऔन्टबेटन और ब्रिटेन कासमीर को पाक का सवभाविक हक समझता था जेसे हेदराबाद जूनागढ़ भारत के . फिर लद्दाख का जो निर्जन बंजर इलाका चीन ने हडपा था उसके बदले भी भारत को बाद को 1973 मे रियासत सिक्किम जेसा अधभुत इलाका मिला चीन तब हाथ मलता रह गया हमला कर ना सका क्योकि वो पहले ही दुनिया मे नेहरू जी की लोकप्रियता से जलभुन कर 62 मे हमला कर चुका था रोज रोज हमला कर नही सकता था यानि नेहरू जी की ” श्हादत ” से भारत को सिक्किम जेसा बेहतरीन इलाका भी मिला खुदा ना खास्ता कोई और पी एम बनता तो भारत नाम का कोई देश ही ना होता
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sikander hayat को जवाब )- Indresh Uniyal (India)
November 18,2014 at 09:29 PM GMT+05:
भारत की जमीन चीन ने हड़पी, चाहे वह बंजर ही क्यों न थी पर हमारी थी. यही नेहरू ने भी संसद मे कहा था की बंज़र जमीन ही थी. तब राममनोहर लोहिया ने जबाब दिया था की आपके सर पर भी बॉल नही उग रहे हैं बंजर होगया है आपका सिर् तो क्या काट दोगे? सिक्किम के बारे मे आपका तर्क बड़ा ही हास्स्यासपद है. वह इंदिराजी का कमाल था न की नेहरू का.
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(Indresh Uniyal को जवाब )- sikander hayat
November 19,2014 at 09:37 AM GMT+05:30
चीन ने जमीन हड़पी थी और सिक्किम भारत का अभिन्न अंग था ? य सस्ती देशभक्ति आपको ही मुबारक हो . चीन ने पूरी कोशिश की थी की सिक्किम भारत को ना मिले उसकी भी नज़र थी मतलब सॉफ है की यानि नेहरू ने 62 का हमला अपने सीने पर ना झेला होता जिससे उनकी जान भी गयी थी तो चीन सिक्किम का भारत विलय ना होने देता मगर 62 के हमले के कारण् वो सिक्किम पर चाह कर भी युध ना कर सका चलिये आपने इंदिरा जी को ही क्रेडिट दिया जिनका की घोर अपमान आपके प्रिय मोदी ने किया है कासमीर पर भी आगे और लिखता हु की किस तरह से नेहरू जी ने कश्मीर पर जो जो जो किया सब सही किया संघियो बज़रंगियो ने नाहक नेहरू को कासमीर पर बदनाम कर रखा है आएहसआनफरामोश संघी
इंसान इतना फितरती और सेल्फिश होता हे की इसी कारण कोई समस्या सुलझ नहीं पाती हे अब देखे नेहरू विरोधियो का एक तबका तो संघी महासभाई हिन्दू कटरपन्ति हे दूसरा नेहरू विरोधी तबका अंग्रेजी पूंजीवादी पिशाचों का तबका हे ये नेहरू की समाजवादी नीतियों का कोसता रहता हे ( जबकि समाजवादी भी नेहरू विरोध पर थे खासकर लोहिया ) के जी इस कारण भारत वेस्ट यूरोप ना बन सका ( तवलीन सिंह जी ने अपनी सारी जिंदगी इसी लाइन को लाख बार लिखने को समर्पित कर दी हे ) ठीक हे अब देखिये की ये वो अंग्रेजी पिशाच हे जिन्हे भारत में अंग्रेजी बने रहने से खूब फायदा हुआ आम आदमी का नुक्सान हुआ मगर अंग्रेजी से इन्हे देश विदेश में खूब फायदे हुए तो अंग्रेजी भी नेहरू जी के कारण ही बनी रही थी वार्ना अंग्रेजी भी हटा दी जाती मतलब साफ़ हे की अंग्रेजी से नेहरू विरोधी पूंजीवादी पिशाचों को जमकर लाभ हुआ फिर भी उल्टा ये नाशुक्रेअहसानफ़रामोश नेहरू को कोसते हे बताइये क्या तुक हे ? अब जहा तक अंग्रेजी की बात हे तो ऐसा नहीं हे की नेहरू हिंदी के खिलाफ थे नहीं मगर उस समय एक तो ये था की हिंदी की ज़िद करने वाले लोग हिंदी हिन्दू का नारा लगाने वाले भी थे और नेहरू भारत को किसी कीमत पर हिन्दू राष्ट्र नहीं बनने देना चाहते थे दूसरा की हिंदी वाले भी शायद नेहरू को संतुष्ट ना कर पाये हो की हिंदी में साइंस टेक्नोलॉजी मेडिकल की पढ़ाई कैसे होगी ? निश्चित रूप से नेहरू हिंदी विरोधी नहीं थे नंदन नीलकेणी ने तो अपनी किताब में अंग्रेजी का महिमांडन करते हुए नेहरू को हिंदी समर्थक तक बता डाला
afzal khan
June 9, 2014
हयत जी
मुझे याद आ रहा है के जो भी साहित्यकार, कलाकार या खिलाडी पाकिस्तान गया वो बहुत परेशान हुआ जैसे जोश मलीहाबादी, नूर जहा , रफिकुल हक और भी बहुत से लोग पाकिस्तान जाने के बाद पश्टये. जोश तो दुबारा भारत वापस आ गये.
REPLY
सिकंदर हयात
June 9, 2014
सही कहा अफज़ल भाई वास्तव में जिस जिस मुस्लिम ने नेहरू पर भरोसा किया वो छा गए जैसे की दिलीप कुमार रफ़ी साहब नौशाद साहब बिस्मिल्लाह खान मकबूल फ़िदा आदि आदि आधे महान कलाकार मुस्लिम थे आधो के गुरु मुस्लिम थे ( जैसे लता जी ) अगर ख़ुदा न खास्ता ये लोग पाकिस्तान चले जाते तो वहा जाकर न ये किसी काम के रहते न भारत इनके बिना ये दुनिया की सबसे बड़ी सांस्कर्तिक दुर्घटना हो जाती भला बताइये जिस नूरजहाँ की लता बाई दीवानी थी कहती थी मुझे नूरजहाँ जैसा गाना हे वो नूरजहाँ उन्होंने पाक जाकर सिर्फ अपने अफयर्स के लिए सुर्खिया बटोरी गाती भी कैसे ? नौशाद शकील बदायुनी सलिल चौधरी सी रामचन्द्र रवि मज़रूह कैफ़ी जाफरी आनद बक्शी शंकर जयकिशन तो यहाँ थे ? लेखक कलाकार का 100 % सेकुलर होना अनिवार्य इसलिए लेखक दीपक असीम ने सही लिखा हे की सरफ़रोश फिल्म एक मधुर गायक को आतंकवादी दिखाया जाना बिलकुल गलत हे कोई अच्छा कलाकार आतंकवादी हो ही नहीं सकता जैसे ही वो होगा फिर उसकी कला ही मर जायेगी
एक बात की नेहरू के सेकुलर प्रभाव की काट के लिए बज़रंगियो ने नेट पर उनके बारे ये अफवाह जमकर उड़ा रखी हे ये बात में कई साइटों पर पढ़ चूका हु के जी नेहरू के दादा कश्मीरी ब्राह्मण नहीं मुस्लिम थे अफ़सोस को सोशल मिडिया के लगातार बढ़ते प्रभाव के बीच कोंग्रेसियो को राहुल को इतनी समझ भी नहीं हे की इन घिनोने अफवाहबाज़ो को कोर्ट में घसीटे
ब में बड़वानी ज़िले के कलेक्टर अजय गंगवार को फ़ेसबुक पर नेहरू-गांधी परिवार की तारीफ़ करना महंगा पड़ गया है.
उन्हें बड़वानी के कलेक्टर पद से हटा कर सचिवालय में उपसचिव बना दिया गया है.
अजय गंगवार ने बुधवार को अपने फेसबुक पोस्ट में लिखा था, “ज़रा ग़लतियां बता दीजिए जो नेहरू को नहीं करनी चाहिए थी. अगर उन्होंने 1947 में आपको हिंदू तालिबानी राष्ट्र बनने से रोका तो यह उनकी ग़लती थी, उन्होंने आईआईटी, इसरो, आईआईएसबी, आईआईएम, भेल स्टील प्लांट, बांध, थर्मल पावर लाए ये उनकी ग़लती थी.”
“आसाराम और रामदेव जैसे इंटिलेक्चुअल्स की जगह साराभाई और होमी जहांगीर को सम्मान और काम करने का मौक़ा दिया ये उनकी ग़लती थी, उन्होंने देश में गौशाला और मंदिर की जगह यूनिवर्सिटी खोली ये भी उनकी घोर ग़लती थी”.
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अजय गंगवार ने की थी नेहरू की तारीफ़
इस पोस्ट की चर्चा होने के बाद गुरुवार को उन्होंने उसे हटा दिया था.
Sanjay Tiwari
7 hrs ·
आज डॉ राम मनोहर लोहिया की पुण्यतिथि है। कल ही विश्वनाथ चतुर्वेदी ने लोहिया नेहरू संबंध पर एक जबर्दस्त किस्सा बताया। लोहिया और जवाहरलाल नेहरू राजनीति के दो ध्रुव थे। लेकिन वह दौर और था। इसलिए राजनीति के दो ध्रुव होने का मतलब जानी दुश्मन होना बिल्कुल नहीं होता था। लोहिया जी बीमार पड़े। आखिरी अवस्था आ गयी थी। इलाहाबाद में उनके शुभचिंतक परेशान थे कि उनको कहां रखा जाए। घर परिवार तो था नहीं। या तो अस्पताल में रखा जाता जहां उनका इलाज और सेवा हो जाती या फिर किसी के घर पर।
विचार विमर्श चल रहा था। किसी ने कहा अस्पताल में भर्ती कर देते हैं तो किसी न कहा किसी के घर पर ले चलते हैं। इतने में लोहिया जी ने कहा, अगर मेरी हालत इतनी खराब हो जाए कि मैं बोल भी न सकूं तो मुझे तीन मूर्ति (प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का आवास) पहुंचा देना। वही एक जगह ऐसी है जहां मेरी तीमारदारी हो जाएगी।
डॉ लोहिया ने नेहरू का जीवनभर राजनतीकि विरोध किया लेकिन उन्हें व्यक्तिगत रूप से नेहरू पर सबसे ज्यादा भरोसा था कि यह व्यक्ति बुरे वक्त में जरूर साथ देगा। ऐसी होती थी राजनीति। और ऐसे होते थे राजनेता।
पटेल और नेहरू के बारे में मोदी की बेबुनियाद बातें -अरुण माहेश्वरीभारत की राजनीति में सरदार पटेल की विशेष पहचान किस बात से है ?
रियासती राज्यों का भारत में विलय कराके भारत के राजनीतिक और प्रशासनिक एकीकरण को सुदृढ़ करने से।इस एकीकरण की एक शुरूआत अंग्रेजों, बल्कि कंपनी राज के जमाने से ही हो गयी थी। 1834 का ‘डाक्ट्रिन आफ लैप्स’ – बेवारिस और नालायक राजाओं के राज्य को ब्रिटिश शासन के अधीन करने का विस्तारवादी डाक्ट्रिन। तहत लार्ड डलहौजी (1848-1856) ने तत्कालीन लगभग छ: सौ रियासतों में से झांसी, उदयपुर, अवध आदि 21 रियासतों को ब्रिटिश राज के अधीन कर लिया था। 1857 के अनेक कारणों में से एक कारण यह भी था।ब्रिटेन में 18 जुलाई 1947 के दिन भारत की आजादी का कानून पारित हुआ। इसमें भारत के विभाजन के साथ ही रियासती राज्यों की आजादी की बात भी कही गयी थी। एक देश की सीमा में इतने स्वतंत्र देशों के अस्तित्व को असंभव समझ कर ही उसके पहले से माउंटबेटन ने रियासतों के मामले के लिये एक कोर कमेटी का गठन किया था जिसके सचिव थे सी एस वी पी मेनन। पटेल के एक करीबी अधिकारी।जिस समय नेहरू भारत के संविधान को तैयार करने में लगे हुए थे, पटेल के जिम्मे मेनन और माउंटबेटन के साथ रियासतों के मसले को सुलझाने का काम था।वैसे भी इन रियासती राज्यों की कोई स्वतंत्र हैसियत बची नहीं थी, इसीलिये चाय की टेबुल पर सभी राजाओं से हस्ताक्षर लेकर बड़ी आसानी से उस काम को पूरा कर लिया गया। लेकिन जम्मू और कश्मीर के महाराजा हरि सिंह, हैदराबाद के निजाम उस्मान अली खां और जूनागढ़ के नवाब तृतीय मुहम्मद महताब खांजी ने अडि़यल रुख अपनाया। जूनागढ़ का नवाब एक धमकी से मान गया, हैदराबाद के निजाम को मनाने के लिये गणपरिषद के के.एम.मुंशी आदि की मदद से कुछ मेहनत करनी पड़ी।
अरुण माहेश्वरीजम्मू और कश्मीर के हरि सिंह को हिंदू महासभा का समर्थन था और वह भारत सरकार की एक नहीं सुन रहा था।ऐलेन कैंबल जान्सन ने अपनी किताब ‘मिशन विथ माउंटबेटन’ माउंटबेटन के अनुभव को बताते हुए लिखा है :‘‘सरदार वल्लभ भाई पटेल के निर्देशों के अधीन गृह मंत्रालय बिल्कुल अलग, ऐसी कोई कार्रवाई नहीं कर रहा था जिसका यह मायने लगाया जा सके कि वह कश्मीर के हाथ बांध रहा हो और साथ ही यह आश्वासन दे रहा था कि पाकिस्तान द्वारा उसे हथियाने की कोशिश को भारत नजरंदाज नहीं करेगा।’’इससे जाहिर है कि कश्मीर के प्रश्न पर सरदार पटेल की भूमिका स्पष्ट नहीं थी।सन् 1950 में पटेल की मृत्यु हो गयी। भारत के एकीकरण का काम तब भी अधूरा था। फ्रांस और पुर्तगाल के हाथ में भारत के कुछ क्षेत्र रह गये थे। इन कामों को प्रधानमंत्री नेहरू ने पूरा किया। गोवा में तो सेना भी भेजनी पड़ी थी।कहने का तात्पर्य यह कि भारत के एकीकरण में पटेल और नेहरू एक दूसरे के पूरक थे।हैदराबाद में कानून-व्यवस्था के लिये पटेल सेना भेजना चाहते थे, नेहरू ने बाधा नहीं दी। कश्मीर में नेहरू और शेख अब्दुल्ला भारत में शीघ्र विलय के पक्ष में थे, पटेल प्रतीक्षा करना चाहते थे। लेकिन बाद में कश्मीर में सेना उतारने के मामले में दोनों एकमत थे।अब भी क्या कोई कहेगा कि यदि पटेल भारत के प्रधानमंत्री होते तो भारत की राजनीति की दिशा भिन्न होती ?इन दोनों व्यक्तित्वों को राजनीति के दो छोर बताना एक शरारतपूर्ण कोशिश है। स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल शक्तियों और उससे अलग रहने वाली आरएसएस की तरह की ताकतों को भारत की राजनीति के दो छोर कहा जा सकता है। नेहरू-पटेल के छद्म द्वैत को खड़ा करके संघ सिर्फ अपने लिये समर्थन का आधार खोजना चाहता है।नेहरू और पटेल के बीच फर्क किसी भी दो व्यक्ति के बीच पाये जाने वाले विचार-आचरण के स्वाभाविक फर्क की तरह है। जो पटेल आजाद भारत के पहले चुनाव के पहले ही दिवंगत हो गये, उनकी धर्म-निरपेक्षता को कथित ‘वोट बैंक वाली धर्म-निरपेक्षता’ से अलग बताना नरेंन्द्र मोदी की ढेरों हवाई बातों की तरह ही एक और तीर-तुक्के वाली एक बात ह
Pankaj Srivastava
4 hrs ·
मोदी सरकार ने एक आरटीआई के जवाब में लिखकर दे दिया है कि नेताजी सुभाष बोस का निधन 1945 में विमान दुर्घटना में हुआ था।
नेहरू के ख़िलाफ़ दशकों तक घृणित अभियान चलाने वालों को आख़िरकार सच्चाई स्वीकार करनी पड़ी। लगातार यह प्रचार किया गया कि सुभाषचंद्र बोस से जुड़ी फ़ाइलों के उजागर होते ही नेहरू की ‘बोस विरोधी’ असलियत सामने आ जाएगी। पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में भी यह मुद्दा भुनाने की कोशिश की गई…लेकिन हुआ क्या ?…इन फ़ाइलों से उलटा यह पता चला कि नेहरू नेताजी का कितना सम्मान करते थे। उन्होंने नेता जी की बेटी अनिता के ख़र्चे के लिए बाक़ायदा ट्रस्ट गठित कराया और लगातार उन्हें आर्थिक मदद पहुँचाई जाती रही।
जनसत्ता ने लिखा है- केंद्र सरकार ने शायद पहली बार लिखित तौर पर कहा है कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस की मृत्यु एक विमान दुर्घटना में 1945 में ताइवान में हुई थी। सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत मांगी गई जानकारी के जवाब में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने जवाब दिया है, “शहनवाज कमेटी, जस्टिस जीडी खोसला कमीशन और जस्टिस मुखर्जी कमीशन की रिपोर्टें देखने के बाद सरकार इस नतीजे पर पहुंची है कि नेताजी 1945 में विमान दुर्घटना में मारे गए थे। ”
गृह मंत्रालय ने अपने जवाब में कहा है, “मुखर्जी कमीशन की रिपोर्ट के पृष्ठ संख्या 114-122 पर गुमनामी बाबा और भगवानजी के बारे में जानकारी उपलब्ध है। मुखर्जी कमीशन के अनुसार गुमनामी बाबा या भगवानजी नेताजी सुभाषचंद्र बोस नहीं थे। गृह मंत्रालय ने नेताजी से जुड़ी 37 गोपनीय फाइलें सार्वजनिक कर दी हैं।”Pankaj Srivastava
4 hrs · Dilip Khan
2 hrs ·
कॉरपोरेटाइजेशन इसलिए भी ख़तरनाक है क्योंकि आपको पता भी नहीं चलता कि विकल्प के तौर पर आप जिसको चुन रहे हैं, वो असल में विकल्प है ही नहीं। मसलन,
✴एडिडास और रिबॉक एक ही कंपनी के उत्पाद हैं। आप एक से चिढ़कर दूसरा जूता ख़रीदते हैं, लेकिन पैसा मिलता है एक ही मालिक को।
✴whatsapp/Instagram सब फ़ेसबुक का है। सबका मालिक एक है। नाम है मार्क ज़करबर्ग।
✴बिग बाज़ार और इज़ी डे सब एक ही कंपनी के बच्चे हैं।
✴दैनिक जागरण से ऊबकर आप नई दुनिया ख़रीदते हैं तो सारा पैसा गुप्ता जी को जाएगा। दोनों उन्हीं के प्रॉडक्ट हैं।
ऐसे दर्जनों उत्पाद हैं जो अलग-अलग ब्रांड नेम के साथ हमारे बीच हैं और जिनकी कंपनी एक ही है। जैसे कोका-कोला और थंप्स अप/स्प्राइट, या फिर पेप्सी या मिरिंडा।
बड़े कॉरपोरेशंस आपको विकल्प मुहैया कराने का ढोंग रचते हैं।Urmilesh Urmil
12 hrs ·
देश की कई राज्य सरकारें, नागरिक संगठन और कानूनविद् कह चुके हैं कि केंद्र सरकार या किसी को भी हमारे जैसे विविधता भरे समाज में लोगों की खान-पान की आदत और जीवनशैली आदि को नियंत्रित या किसी एक समुदाय की इच्छानुसार बनाने की कोशिश करना लोकतंत्र और देश के हित में नहीं होगा। पर संघ-भाजपा संचालित केंद्र सरकार लोकतंत्र और देश की परवाह किए बिना अनाप-शनाप आदेश और अधिसूचना जारी करने में लिप्त है। केरल, तमिलनाडु, पूर्वोत्तर के अधिकतर राज्यों और बंगाल आदि में तरह-तरह से जनाक्रोश फूटता नजर आ रहा है। शासन में बैठे लोग एक तरफ ‘डर्टी वार’ में देश को उलझा रहे हैं और दूसरी तरफ खानपान और जाति-बिरादरी के अंतर्विरोधों को बढ़ाकर पूरे समाज को ‘गृहयुद्ध’ की तरफ ढकेलते नजर आ रहे हैं। प्लीज, देश के हित में अपनी इन जनविरोधी नीतियों पर तत्काल रोक लगाइये।Sheetal P Singh
3 hrs · New Delhi ·
हरियाणा की एक सड़क
भविष्य में नंदी बैल और बूढ़ी गायें इन सड़कों पर बहुमत में होंगी !
राजस्थान की हिंगोनिया गोशाला में बीते बरस करीब आठ हज़ार गायें मर गईं / गायब कर दी गईं थीं । सरकार करीब दो करोड़ रुपये इस गोशाला को वार्षिक ग्रांट देती है । राजस्थान में बीजेपी की सरकार है !
यानि गोशालाएं बूढ़ी अपंग बाँझ बीमार गायों और नंदियों की देखभाल में अक्षम साबित हुई हैं !
अब सड़क ही सहारा है ! क्योंकि देश “गाय” है “गाय” ही देश है ! गाय वोट भी है !Prakash Govind
3 hrs ·
सन् 2019
बसन्ती की मौसी
मौसी के घर अमित शाह वोट मांगने गए तो।
मौसी -: देखो बेटा पढ़ी लिखी सियानी हूँ, कोई स्मृति ईरानी तो हूँ नही। हां.. इतना तो पूछना ही पड़ेगा कि तुम्हारे नेता ने किया क्या है?
अमित -: करने का क्या है मौसी जी, एक बार फिर से PM बनेगा, देश की जिम्मेदारी सिर पे पड़ेगी तो कुछ करने भी लग जायेगा।
मौसी -: हाय दय्या! फिर मतलब ? पहले 5 साल में कुछु भी नहीं किया ?.
अमित -: अरे अरे मौसी आप तो हमारे मोदी को गलत समझ रही है। 5 साल होते ही कितने है, गौ हत्या, जेनयू, भारत माता, जाट-पटेल और दंगे-पंगे,,, अडानी अम्बानी की लूट में पता ही कहाँ चले।
मौसी -: हाय! इतना कुछ हुआ और वो कुछु बोला भी नाही।
अमित -: अब बोलने का क्या हैं मौसी! मन की बात तो बहुत बोली। मगर संघ के खिलाफ भला कैसे बोलते।
मौसी -: ओ हो हो! तो क्या संघी है?
अमित -: अरे अरे मौसी ,, वो और संघी,, न न ना। अब लड़कपन में किसे क्या पता होता है ,, क्या अच्छा क्या बुरा। किसी ने बहला फुसला के शाखा में भर्ती करा दिया, तो कर लिया बेचारे ने …
एक बार फिर से PM बन जाये तो संघ तो बस यूँ छूट जाएगा यूँ।
मौसी -: मुझ बुढ़िया को समझा रहे हो बेटा संघ-वंघ की लत किसी की छूटी है जो छूटेगी।
अमित -: अरे मौसी PM बनते ही दे दनादन विदेशों के दौरे शुरू हो जाएंगे। संघ तो भारत में ही छूट जाएगा न।
मौसी -: बस यही एक कमी रह गयी थी।
अमित -: मौसी जी! विदेश तो बड़े-बड़े खानदान के पढ़े-लिखे लोग ही जाते है।
मौसी -: एक बात तो माननी पड़ेगी लाख कमी हो तुम्हारे नेता में मगर तुम्हारे मुँह से तारीफ़ ही निकले हैं।
अमित -: अब क्या बताये मौसी हम भक्तो का तो दिमाग ही ऐसा हैं।
मौसी -: जाते जाते ये ही बताते जाओ बेटा तुम्हारा नेता पढा-लिखा कितना है?
अमित -: बस यूं समझिये मौसी जी, जैसे ही सही खबर मिलेगी, सबसे पहले आपको ही बतायेगे।
तो मौसी जी आपका वोट पक्का समझू।Dilip C Mandal
1 hr ·
जस्टिस शर्मा जी हाईकोर्ट के जज हैं। कहते हैं कि मोर राष्ट्रीय पक्षी है क्योंकि मोरनी आँसू पीकर गर्भवती होती है।
और गाय राष्ट्रीय पशु क्यों बने, लगे हाथों यह भी बता देते।
ये तो हद की भी हद हो गई। पता नहीं विदेशी लोग सुनते होंगे, तो हम लोगों के बारे में क्या सोचते होंगे!
बस करो। देश का नाम मिट्टी में मिला दोगे क्या?
Krishnan Iyer with Onkar Toshniwal.
Yesterday at 14:00 ·
एक चड्डी ने बोला कि जब स्वर्गीय कमला नेहरूजी की तबियत खराब थी तब नेहरूजी ऐय्याशी कर रहे थे और कमलाजी को लावारिस मरने छोड़ दिया था..इससे ज्यादा नीचता और क्या हो सकती है? लुगाई छोड़, सेक्स रैकेट गिरोह को मेरा जवाब तारीख के साथ :
1931 के अंत से कमलाजी की तबियत खराब रहने लगी..जुलाई 1934 को उनहे शायद पहली बार TB का पता चला..ईलाज शुरू किया गया.. TB sanatorium भोवाली, नैनीताल में ईलाज शुरू हुवा..10 मार्च से 15 जुलाई 1935 तक उनका भोवाली में ईलाज हुवा.. Dr L. S. White उनका ईलाज कर रहे थे..इसी ईलाज से उन्हें काफी फायदा हुवा और वो स्विट्ज़रलैंड जाने के लायक सेहत बना पायी..कहा थे नेहरूजी ईस वक्त? सुनिये जवाब-
जब कमलाजी भोवाली में ईलाज करवा रही थी तब नेहरूजी को अंग्रेजो ने अल्मोड़ा जेल में कैद कर रखा था..हॉस्पिटल का रेकॉर्ड बताता है कि नेहरूजी 6 बार कड़े पुलिस पहरे में कमलाजी से मिलने गये.. अंग्रेजो ने अनुमति दी थी..आपभी जाकर वो विजिटर रजिस्टर देख सकते है..225 एकर का ये TB हॉस्पिटल आजभी मौजूद है.. जिस कमरे में कमलाजी का ईलाज हुवा था उसका नाम अब ‘कमला कॉटेज’ है..वो उनकी याद में संजो कर रखा गया है…
उस वक्त TB का कोई ईलाज नही होता था..तड़प तड़प कर मौत हो जाती थी TB रोगियों की..कमसे कम भारत मे तो ईलाज नही था..कमलाजी को स्विट्ज़रलैंड में ईलाज करवाने का फैसला किया गया..
बाकी का इतिहास बताने के पहले जरा टाइम मशीन में सवार हो जाइये.. 1930 का वो दौर याद कीजिये..भगत सिंह की फांसी, डांडी नमकयात्रा, लाहौर पूर्ण स्वराज, हरिजन यात्रा, असहयोग और भी अनगिनत आंदोलन..भारत में आज़ादी की हवा बहुत जोर से बह रही थी.. नेहरूजी और सुभाषचन्द्र युथ आइकॉन बन चुके थे..जिम्मेदारी इतनी की रातों की नींद बस 2 घण्टे..नेहरूजी और सुभाषचंद्र की दोस्ती और कमलाजी का ईलाज- दोस्ती की एक अनकही दास्तान सुनिये..
कमलाजी को स्विट्जरलैंड लाया गया ईलाज के लिये.. उनदिनों विदेश यात्रा आजकी तरह आसान नही होती थी..नेहरूजी खुद गये कमलाजी का ईलाज करवाने लेकिन भारत वापस आना पडा और फिर गिरफ्तार कर लिये गये..इंदिराजी अकेली अपनी माँ की सेवा कर रही थी स्विट्ज़रलैंड में..
सुभाषचंद्र उस वक्त वियेना में थे..जैसे ही उन्हें मालूम हुवा वो वियेना से Badenweiler आ गये कमलाजी और इंदिराजी का साथ देने के लिये…सुभाषचन्द्र ने कमलाजी के ईलाज की पूरी जिम्मेदारी सम्हाल ली..अंग्रेजो ने फिर भी नेहरूजी को जेल से नही रिहा किया..बहुत कोशिशों के बाद नेहरूजी को रिहाई मिली.. 28 फ़रवरी 1936 को स्विटज़रलैंड के लोज़ान शहर में कमला नेहरू ने अंतिम साँसें लीं..उनके मृत्यु के समय सुभाषचंद्र, नेहरुजी के साथ-साथ, इंदिराजी, नेहरु की माता स्वरुपरानी जी और डॉ अटल वहां मौजूद थे..
ये थे स्वंत्रता सेनानी कमलाजी के जीवन के सबसे दर्द भरे पल..अब एक सवाल : माता जशोदा भी पिछले 50 सालों में कभी ना कभी बीमार हुई थी…साहेब क्या एक बार भी माता जशोदा को किसी डॉक्टर के पास ले गये क्या? क्यों हमारी मातावो पर कीचड़ उछालते हो? हम तो तुम्हारी मातावो को अपनी माता से भी ज्यादा सम्मान देते है….हमे जितना दर्द दोगे, हम उतने मजबूत बन कर उभरेंगे…क्योंकि हमारे पास दो मातावो का आशीर्वाद है : हमारी माँ और तुम्हारी माँ – दोनो का आशीर्वाद.. समझे?
ईसी मुद्दे से जुड़ा हुवा एक बहुत महत्वपूर्ण इतिहास शाम को एक बहुत छोटी सी पोस्ट में लिखूंगा.. नेहरूजी और सुभाषचन्द्र की दोस्ती की एक छोटी सी दास्तान..
जय हिंद …कमला नेहरू अमर रहे..Krishnan Iyer
17 July at 17:11 ·
ममताजी ने आज अपने प्रेस कांफ्रेंस में तीन बहुत महत्वपूर्ण और विस्फोटक सवाल पूछे है :
1. दार्जीलिंग में पशुपति गेट बॉर्डर के पास 400 चीनी भाषा की स्कूल खोली गई है!!! किसने खोली ये चीनी स्कूल? बॉर्डर तो राज्य सरकार के हाथों में नही होती..
2. जमाते इस्लामी के लोग बांग्लादेश बॉर्डर पर करके कैसे आये? बंगाल में जमाते इस्लामी का कोई नामोनिशान नही है..किसने खोली बॉर्डर?
3. गोरखा जनमुक्ति मोर्चा का गठबंधन बीजेपी के साथ है..बीजेपी ने दार्जीलिंग हिंसा रोकने के लिये गोरखा मोर्चा को क्यों नही रोका?
बंगाल एक ऐसा राज्य है जहां चीन, बांग्लादेश, भूटान की सीमाये लगती है…सही मायनों में बंगाल और चीन शायद 1-2 घण्टे की दूरी पर है…कौन सा खेल चल रहा है ये? क्या चीन के साथ मिलकर कोई खेल खेला जा रहा है? कौन है ये खिलाड़ी? ममताजी की देशभक्ति का सर्टिफिकेट भी जारी हो रहा है…जनरल करियप्पा वाला किस्सा तो नही दोहराया जा रहा?
भगवा गिरोह हर मदरसे की जानकारी रखता है…ये 400 चीनी स्कूल कहा से आये? जावो तोड़ दो सारी चीनी स्कूलों को !!
जागते रहो !!!!Krishnan Iyer
नेहरू के दिए संस्कार Jagadishwar Chaturvedi
7 hrs · जब इंदिरा गाँधी के साथ जेपी रोए
————————२४मार्च ‘७७ दिल्ली के रामलीला मैदान में जनता गठजोड़ की तरफ से विजय रैली रखी गई थी. जनता के सभी विजयी नेताओं के अलावा जेपी भी उस सभा को संबोधित करने वाले थे. लेकिन अपनी राजनीतिक विजय के सबसे बड़े दिन जेपी विजय रैली में भाषण देने नहीं गए. यह वही रामलीला मैदान था जहां पच्चीस जून को भाषण देने के बाद जेपी को गिरफ्तार किया गया था. यहीं फरवरी सतहत्तर में जेपी ने जनता के चुनाव अभियान की शुरुआत की थी. अब इसी रामलीला मैदान में जनता का विजयोत्सव मनाया जा रहा था. लेकिन जेपी वहां नहीं गए. वे गांधी शांति प्रतिष्ठान के अपने कमरे से निकलकर सफदरजंग रोड की एक नंबर की कोठी में गए जहां पराजित इंदिरा गांधी रहती थीं. जैसे महाभारत के बाद भीष्म पितामह गांधारी से मिलने गए हों. इंदिरा गांधी के साथ उनके सिर्फ एक सहयोगी एचवाई शारदा प्रसाद थे और जेपी के साथ गांधी शांति प्रतिष्ठान के मंत्री राधाकृष्ण और मैं. अद्भुत मिलना था वह. मिलकर इंदिरा गांधी रोईं और जेपी भी रोए.
जेपी के बिना इंदिरा गांधी पराजित नहीं हो सकती थीं और जेपी उनसे संघर्ष नहीं करते तो देश में लोकतंत्र बच नहीं सकता था. लेकिन जेपी अपनी विजय पर हुंकार भरने के बजाय अपनी पराजित बेटी के साथ बैठकर रो रहे थे. ऐसा महाभारत लड़नेवाले एक ही कुल के दो योद्धा कर सकते थे. उस वक्त और आज की राजनीति में दो नेता तो ऐसा नहीं कर सकते. जेपी के लिए वे बेटी इंदु थी भले ही उनके खिलाफ जेपी ने आंदोलन चलाया और चुनाव अभियान की अगुवाई की. निजीतौर पर इंदिरा गांधी भी जेपी को अपना चाचा मानती रहीं लेकिन राजनीतिक लड़ाई उनने भी आखिरी दम तक लड़ी ही.
जेपी ने जैसे बेटी से पूछते हैं – इंदिरा जी से पूछा कि सत्ता के बाहर, अब काम कैसे चलेगा? घरखर्च कैसे निकलेगा? इंदिरा जी ने कहा कि घर का खर्च तो निकल आएगा. पापू (जवाहरलाल नेहरू) की किताबों की रॉयल्टी आ जाती है. लेकिन मुझे डर है कि ये लोग मेरे साथ बदला निकालेंगे. जेपी को यह बात इतनी गड़ गई शांति प्रतिष्ठान लौटते ही उनने उसी दिन प्रधानमंत्री बने मोरारजी देसाई को पत्र लिखा. कहा कि लोकहित में इंदिरा शासन की ज्यादतियों पर जो भी करना हो जरूर कीजिए लेकिन इंदिरा गांधी पर बदले की कोई कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए. सबेरे जेपी विमान से पटना गए लेकिन वहां उनका डायलिसिस बिगड़ा तो वायुसेना के विमान से उन्हें मुंबई और जसलोक अस्पताल भेजा गया.
वरिष्ठ पत्रकार स्व.श्री प्रभाष जोशी
“जेपी और इंदिरा गांधी”
(१४ अक्टू.२००२के आलेख के कुछ अंश )
कैलाश भसीन की वाल से। Jagadishwar Chaturvedi
वाया हिमांशु कुमार, आशुतोष कुमार
Pushker Awasthi
8 hrs ·
कांग्रेस की सरकारों और उनके बने गए शिक्षाविदों और बुद्धजीवियों ने भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को लेकर ऐसा मिथक बनाया है की लोग अपने बाल काल से ही उन्हें चाचा नेहरू ऐसे भवनात्मक रिश्ते से स्वयं को बाँध लेते थे। इसका इतना मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ा है की लोगो में नेहरू को लेकर उभरते हुए प्रश्नो को देखने की या अपनी दृष्टि ही खत्म हो गयी या फिर नेहरू को लेकर प्रश्न पूछने को एक कार्डिनल सिन बना दिया गया है। इस चचा नेहरू सिंड्रोम का मैं भी अपवाद नही रहा हूँ लेकिन जब पिछले 25 वर्षो में खुद सोचने और समझने की ऊष्मा जागी तब नेहरू को लेकर बताई गयी समकालीन बातो में विरोधाभास स्पष्ट दिखने लगे थे।
मैंने इसी विरोधाभास को समझने के लिए, भारत में स्वतंत्रता के बाद लिखे गये कांग्रेसी शासन तंत्र द्वारा पोषित, वामपंथी विचारधारा से आत्ममुग्ध बुद्धजीवियों के लिखित इतिहास को पढ़ा वहीं मैंने कम से कम अंतराष्ट्रीय व राष्ट्रीय लेखकों की 50 किताबे और भी पढ़ी जो कांग्रेसियों और वामपंथियो की छाया से तटस्थ थे। इस तमाम पठन पाठन के बाद जवाहर लाल नेहरू को लेकर मेरा बाल सुलभ प्रेम स्वतः समाप्त हो गया। मैंने भारत की स्वतंत्रता और उसके पुनर्निर्माण को लेकर नेहरू का आंकलन, कांग्रेसियों या फिर अपने पूर्वजो की आँखों से करना बंद कर दिया है।
भारत के पुनर्निर्माण को लेकर नेहरू को नकारने से पहले एक प्रश्न जरूर खड़ा होता है की क्या नेहरू , क्या नाकारा थे ? या फिर ऐसा क्या नेहरू में था जिसको गाँधी ऐसे सशक्त संबल ने भारत का प्रथम प्रधानमंत्री बना डाला था? आप या मैं कितना भी नेहरू के विरोधी हो लेकिन नेहरू का आंकलन एक तरफा करना स्वयं वर्तमान के साथ धोखा होगा और मेरा मानना है की उनका आंकलन एक तरफा नही हो सकता है।
मेरा मानना है की गाँधी जी की एक राजनैतिज्ञ के रूप में असफलता का प्रारम्भ 1930 के दशक से ही शुरू हो गया था और उनकी असफलता का प्रमुख कारण, गांधी जी की नेहरू के प्रति आसक्ति थी, जो उम्र के साथ बढ़ती रही थी। इसी आसक्ति ने नेहरू को महामंडित किया जिसको स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस ने शासन का मूल मंत्र बना लिया है।
तटस्थ हो कर देखा जाय तो नेहरू,एक जबरदस्त शख्सियत थे। नामी परिवार से थे, खूबसूरत थे, अंग्रेजो के अंग्रेज थे , राजा रजवाड़ों के से कम जहीन नही थे, संक्षेप में 20 वीं शताब्दी के शुरू में उनमे वह सारे गुण थे जो राष्ट्रिय और अंतराष्ट्रीय स्तर पर बुद्धजीवियों और समान्य जनमानस को उनकी तरफ आकर्षित कर सकता था। इसमें भी कोई शक नहीं है की भारत की स्वतंत्रता और उसके बाद भारत के विकास के प्रति उनकी प्रतिबद्धता पूरी थी लेकिन फिर ऐसा क्या हुआ, जो मेरा जैसा भारत का एक बड़ा वर्ग, स्वतंत्रता के 7 दशक के बाद, नेहरू को महान नायक मानने से न केवल इंकार कर रहा है बल्कि आज के भारत और उसके समाज में व्याप्त विभीषका के लिए उनको जिम्मेदार मानने लगा है?
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विश्व में प्रथम विश्वयुद्ध के बाद, ख़ास टूर से योरप में वैसा ही वातावरण था जैसे भारत में ‘जेऐनयु’ ऐसे विश्वविद्यालयों में का मौहाल है। उस काल में विश्व में राजतंत्र के पराभव के साथ,19 वीं शताब्दी में यांत्रिकी युग के उफान से उपजी पूंजीवादी व्यवस्था में बने पूंजीपतियों की एक तरफा संकीर्णता और लालच ने, नये पढ़े लिखे चैतन्य युवा वर्ग को मार्क्स वाद की तरफ आकर्षित किया था। उस वक्त के हर उस व्यक्ति को जो शोषण या उपनिवेशवाद के विरुद्ध खड़ा हुआ था उसे यह एक सार्थक विकल्प लगा था।
नेहरू भी अपने योरप प्रवास के दौरान इससे प्रभावित हुए थे और उस वक्त के योरप के तमाम बुद्धजीवी, लेखक, पत्रकार व राजनीतिज्ञ भी सोशिलिस्म और वामपंथी विचारधारा में आर्थिक विषमता को लेकर समाज के लिये उत्तर ढूंढ रहे थे। उनके सामने 1918 की रूस में हुयी बोल्शेविक क्रांति एक बड़ा प्रेरणा श्रोत भी था और उसका असर योरप की राजनीती पर सीधा पड़ भी रहा था। मै समझता हूँ की नेहरू का उससे प्रभावित होना बड़ा स्वाभविक था और पराधीन भारतीय की राजनीती में वो अकेले ऐसे अकेले भी नहीं थे। देखा जाय तो, जो उस काल जो नेहरू के साथ हुआ, उन्ही परिस्थियों में मेरे ऐसे व्यक्ति के साथ भी हो जाना बड़ा स्वाभाविक होता।
मेरे और उस काल के नेहरू में अंतर् बस अंतर यही खत्म हो जाता है क्यूंकि मैंने 25 /30 वर्ष पहले समझी हुयी और सीखी बातो को, परिणाम व विरोधाभास के तराजू पर तौल कर विकल्प की तलाश की है और वही नेहरू, क्यों की वह गलत हो ही नही हो सकते है, इसलिए उन्होंने कभी नये आये समय में, स्वतंत्रता काल में स्थापित नए तंत्रो व नई परिस्थितियों में अपने विचारो का पुनर्मूल्यांकन नहीं किया और लड़ने की कोशिश नही की। उन्होंने शायद अपने जीवन के आखरी काल में कोशिश की हो लेकिन तब तक नेहरू ने अपने को गुलाम मानसिकता के दरबारियों से घेर लिया था और सचेतन अपने को भारत का नया महाराजा बनने दिया था।
नेहरू प्रधानमंत्री कैसे बने और क्यों बने अब इसका कोई मतलब नही रह गया है। जो 15 अगस्त 1947 को जो हो गया वो हो चूका है। उसको लेकर विलाप का कोई औचित्य नहीं है, बात तो उसके बाद की है। भारत को जिस रूप में स्वतंत्रता मिली है उसमे उनके योगदान को हम नही नकार सकते है। हम नेहरू का भारत में हैवी इंडस्ट्री और तकनिकी शिक्षा के प्रति उनकी संकल्पता को भी नही नकार सकते है।
मेरा मानना है इस सब को लेकर उनकी नियत तो अच्छी थी लेकिन उसके साथ उनकी समाजवाद को लेकर रोमानियत और उसके साथ अपने को विश्व नेता माने जाने के अहंकारोन्माद व भारत के स्वयंभू विश्व गुरु होने के मुगालते ने उन्हें बर्बाद कर दिया। उनकी आँख में भारत का चश्मा न हो कर योरप का चश्मा था जिसने भारतीयता को पुरातनपंथी समझ कर तिरस्कार किया वही प्रगतिशीलता के नाम पर पाश्चात्य की बौद्धिकता को न स्वयं अपनाया बल्कि उसको भारत की नीव में जड़े भी दी। नेहरू अपनी महिमामंडल से इतने आसक्त हो गये थे के वे खुद अपने से बेहद मुहब्बत करने लगे थे।
नेहरू ने स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस के आदर्शवाद के चरित्र को ही केंचुल की तरह उतार फेका था। गांधी जी जब मरे थे तब वह कोई भी सम्पति अपने किसी उत्तराधिकारी की लिये नही छोड़ गये थे, यही हाल सरदार पटेल जी का था। जब वह मरे थे तो उनकी विरासत में 2 धोती कुरता और कुछ बर्तन थे। लेकिन नेहरू, लेनिन, स्टेलिन वामपंथियो की तरह वर्गविहीन समाज में अलग वर्ग का प्रधानित्व करने लग गये थे। उन्होंने बाकायदा अपनी वसीयत की और सब कुछ अपनी बेटी के नाम कर गये। नेहरू स्वतंत्रता के संघर्ष काल के अग्रिम पंक्ति के अकेले ऐसा नेता थे जो देश को न देकर अपना सब कुछ अपने बच्चे को देकर गये थे।
नेहरू ने स्वतंत्रता के तुरंत बाद धर्मनिरपेक्षिता के नाम पर मुस्लिम अपीसमेंट को भारत के शासन तंत्र का ध्रुव बनाया जिसने हिन्दू बहुल राष्ट्र में हिंदुत्व ही हीनता का शिकार हो गयी है।
नेहरू ने राजनैतिक लाभ के लिये मुस्लिम वोट बैंक का निर्माण किया जिसने भारतीय समाज को ऐसे असाध्य बीमारी से ग्रसित कर दिया है जिसका बिना रक्तपात के इलाज की संभवना क्षीण लगती है।
नेहरू ने भारतीय राजनीती में वंशागत परिवार को बढ़ाने का सूत्रपात किया था। नेहरू ने भारत की राजनीती में होने वाले भृष्टाचार पर सबसे पहले अपनी आँखे मूंदी थी। उनके ही सगे दामाद फिरोज गांधी( गांधी नाम नेहरू ने दिया था वो कोई गुजरती हिन्दू नही था),ने उन पर भृष्टाचार को प्रश्य देने का इलज़ाम लगाया था। नेहरू ने ही सबसे पहले विदेशो से मिले उपहारों को राष्ट्र को समर्पित न कर के, व्यक्तिगत उपयोग और राजकीय कोष में जमा न करने की परम्परा शुरवात की थी।
नेहरू, जैसे गांधी जी को महात्मा पुकारा गया और वह मान लिये गये, उसी तरह जवाहर लाल नेहरू को भी, विश्व का शांति दूत और महान नेता हो जाने का यकीन था और वह इस विश्वास में इतने वाहियात हो गये थे की जब चीन उनको, सीमा के विवाद को लेकर बार बार समझा रहा था तब वह पंचशील समझौते की बात कर रहे थे और अपने मित्र मेनन, जो एक अंग्रेजदां वामपंथी था उसे देश का रक्षामंत्री बनाये रक्खे हुये थे।
खैर जो है वो तो है ही है, नेहरू ने जहाँ मेरे भारत के लिये कुछ अच्छा किया वही उन्होंने उससे ज्यादा भारत का बुरा भी किया जो आज हमारे सामने परलिक्षित है। उनको आज अमर्यादित बाते कही जारही है वह पूरी तरह इसके भागी है क्यूंकि लोकतंत्र में रजवाड़ो की तर्ज़ पर, वंशगत उत्तराधिकारी को जंत्रांतिक वैधानिकता उन्होंने ही प्रदान की है। नेहरू की सहमति से, नेहरू की कांग्रेस ने भारत के जनमानस में यह अच्छी तरह बात बैठा दी थी की वह शासक है और उनके परिवार का, उनपर शासन करने का पहले अधिकार है और उसी मानसिकता से नेहरू का खानदान आज तक अपने को नहीं निकाल पाया है।
आज नेहरू का जन्मदिवस कोई हर्षोउल्लाह्स नही लाता है सिर्फ पीड़ा दे जाता है।
#pushkerawasthi
Shesh Narain Singh
Yesterday at 11:51 ·
जवाहरलाल नेहरू का जन्मदिन है आज
महात्मा गांधी , नेहरू और सरदार पटेल की साझा समझ ने कश्मीर को भारत का हिस्सा बनाया
शेष नारायण सिंह
देश में नेताओं और बुद्धिजीवियों का एक वर्ग जवाहरलाल नेहरू को बिलकुल गैर ज़िम्मेदार राजनेता मानता रहा है . मौजूदा सरकार में इस तरह के लोगों की संख्या बहुत ज्यादा है . नेहरु की नीतियों की हर स्तर पर निंदा की जा रही है . जवाहरलाल ने तय कर रखा था कि कश्मीर को भारत से अलग कभी नहीं होने देगें लेकिन अदूरदर्शी नेताओं को नेहरू अच्छे नहीं लगते थे . जम्मू-कश्मीर की मौजूदा सरकार में भी ऐसे लोग हैं जो हालांकि भारत के संविधान की बात करते हैं लेकिन भारत की एकता और अखण्डता के नेहरूवादी ढांचे को नामंजूर कर देते हैं .जम्मू-कश्मीर की मौजूदा सरकार में कुछ ऐसे लोग हैं जो पाकिस्तान परस्त अलगाव वादियों से दोस्ती के रिश्ते रखते हैं और कुछ ऐसे लोग है जो १९४६-४७ में कश्मीर के राजा हरि सिंह के समर्थकों के राजनीतिक वारिस हैं . यह लोग हर क़दम पर गलतियाँ कर रहे हैं और जब भी गड़बड़ होती है ,केंद्र सरकार से फ़रियाद करते हैं कि मामलों में दख़ल दो. केंद्रीय हस्तक्षेप के कारण ही कश्मीर की यह दुर्दशा हुयी है . आज की सत्ताधारी पार्टी बीजेपी है . यह जब भी विपक्ष में रही है , कश्मीर में संविधान के आर्टिकिल ३७० का विरोध करती रही है लेकिन जब भी सत्ता में आती है उससे अपने को अलग कर लेती है और नेहरू की लाइन को मानने लगती है .
जम्मू-कश्मीर के राजा हरि सिंह को सरदार पटेल में औकात बताई थी और २६ अक्तूबर १९४७ को उससे विलय दस्तावेज़ पर वी पी मेनन को भेजकर दस्तखत करवा लिया था . जम्म-कश्मीर के मामलों में सरदार के उस हस्तक्षेप ने दक्षिण और मध्य एशिया की भावी राजनीति की दिशा तय कर दी थी . लेकिन उसके बाद हमने देखा है जब भी जम्मू-कश्मीर में केंद्रीय हस्तक्षेप हुआ है , नतीजे भयानक हुए हैं . शेख अब्दुल्ला की १९५३ की सरकार की बर्खास्तगी हो या फारूक अब्दुल्ला को हटाकर गुल शाह को मुख्यमंत्री बनाने की बेवकूफी, केंद्र की गैर ज़रूरी दखलंदाजी के बाद कश्मीर में हालात हर बार खराब होते हैं . कश्मीर में केन्द्रीय दखल के नतीजों के इतिहास पर नज़र डालने से तस्वीर और साफ़ हो जायेगी. जम्मू-कश्मीर की जनता हमेशा से ही बाहरी दखल को अपनी आज़ादी में गैरज़रूरी मानती रही है . इसी रोशनी में यह भी समझने की कोशिश की जायेगी कि जिस कश्मीरी अवाम ने कभी पाकिस्तान और उसके नेता मुहम्मद अली जिन्नाह को धता बता दी थी और जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राजा की पाकिस्तान के साथ मिलने की कोशिशों को फटकार दिया था, और भारत के साथ विलय के लिए चल रही शेख अब्दुल्ला की कोशिश को अहमियत दी थी , आज वह भारतीय नेताओं से इतना नाराज़ क्यों है. कश्मीर में पिछले २५ साल से चल रहे आतंक के खेल में लोग भूलने लगे हैं कि जम्मू-कश्मीर की मुस्लिम बहुमत वाली जनता ने पाकिस्तान के खिलाफ भारतीय नेताओं, महात्मा गाँधी , जवाहर लाल नेहरू और जयप्रकाश नारायण को अपना रहनुमा माना था. पिछले ७० साल के इतिहास पर एक नज़र डाल लेने से तस्वीर पूरी तरह साफ़ हो जायेगी.
देश के बँटवारे के वक़्त अंग्रेजों ने देशी रियासतों को भारत या पाकिस्तान के साथ मिलने की आज़ादी दी थी. बहुत ही पेचीदा मामला था . ज़्यादातर देशी राजा तो भारत के साथ मिल गए लेकिन जूनागढ़, हैदराबाद और जम्मू-कश्मीर का मामला विवादों के घेरे में बना रहा . कश्मीर में ज़्यादातर लोग तो आज़ादी के पक्ष में थे . कुछ लोग चाहते थे कि पाकिस्तान के साथ मिल जाएँ लेकिन अपनी स्वायत्तता को सुरक्षित रखें. इस बीच महाराजा हरि सिंह के प्रधान मंत्री ने पाकिस्तान की सरकार के सामने एक स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट का प्रस्ताव रखा जिसके तहत लाहौर सर्किल के केंद्रीय विभाग पाकिस्तान सरकार के अधीन काम करेगें . १५ अगस्त सन ४७ को पाकिस्तान की सरकार ने जम्मू-कश्मीर के महाराजा के स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जिसके बाद पूरे राज्य के डाकखानों पर पाकिस्तानी झंडे फहराने लगे . भारत सरकार को इस से चिंता हुई और जवाहर लाल नेहरू ने अपनी चिंता का इज़हार इन शब्दों में किया.”पाकिस्तान की रणनीति यह है कि अभी ज्यादा से ज्यादा घुसपैठ कर ली जाए और जब जाड़ों में कश्मीर अलग थलग पड़ जाए तो कोई बड़ी कार्रवाई की .” नेहरू ने सरदार पटेल को एक पत्र भी लिखा कि ऐसे हालात बन रहे हैं कि महाराजा के सामने और कोई विकल्प नहीं बचेगा और वह नेशनल कान्फरेन्स और शेख अब्दुल्ला से मदद मागेगा और भारत के साथ विलय कर लेगा.अगर ऐसा हो गया गया तो पाकिस्तान के लिए कश्मीर पर किसी तरह का हमला करना इस लिए मुश्किल हो जाएगा कि उसे सीधे भारत से मुकाबला करना पडेगा.अगर राजा ने इस सलाह को मान लिया होता तो कश्मीर समस्या का जन्म ही न होता..इस बीच जम्मू में साम्प्रदायिक दंगें भड़क उठे थे . बात अक्टूबर तक बहुत बिगड़ गयी और महात्मा गाँधी ने इस हालत के लिए महाराजा को व्यक्तिगत तौर पर ज़िम्मेदार ठहराया .पाकिस्तान ने महाराजा पर दबाव बढाने के लिए लाहौर से आने वाली कपडे, पेट्रोल और राशन की सप्लाई रोक दी. संचार व्यवस्था पाकिस्तान के पास स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के बाद आ ही गयी थी. उसमें भी भारी अड़चन डाली गयी.. हालात तेज़ी से बिगड़ रहे थे और लगने लगा था कि अक्टूबर १९४६ में की गयी महात्मा गाँधी की भविष्यवाणी सच हो जायेगी. महात्मा ने कहा था कि अगर राजा अपनी ढुलमुल नीति से बाज़ नहीं आते तो कश्मीर का एक यूनिट के रूप में बचे रहना संदिग्ध हो जाएगा.
राजा की गलतियों के कारण ही कश्मीर का मसला बाद में संयुक्त राष्ट्र में ले जाया गया जिसके कारण भारत की सरकार खूब पछताई और आज तक उसका पछतावा है . उसके बाद बहुत सारे ऐसे काम हुए कि अक्टूबर १९४७ वाली बात नहीं रही. संयुक्त राष्ट्र में एक प्रस्ताव पास हुआ कि कश्मीरी जनता से पूछ कर तय किया जाय कि वे किधर जाना चाहते हैं . भारत ने इस प्रस्ताव का खुले दिल से समर्थन किया लेकिन पाकिस्तान वाले भागते रहे , शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के हीरो थे और वे जिधर चाहते उधर ही कश्मीर जाता . लेकिन १९५३ के बाद यह हालात भी बदल गए. . बाद में पाकिस्तान जनमत संग्रह के पक्ष में हो गया और भारत उस से पीछा छुडाने लगा . इन हालात के पैदा होने में बहुत सारे कारण हैं.बात यहाँ तक बिगड़ गयी कि शेख अब्दुल्ला की सरकार बर्खास्त की गयी, और शेख अब्दुल्ला को ९ अगस्त १९५३ के दिन गिरफ्तार कर लिया गया.उसके बाद तो फिर वह बात कभी नहीं रही. बीच में राजा के वफादार नेताओं की टोली जिसे प्रजा परिषद् के नाम से जाना जाता था, ने हालात को बहुत बिगाड़ा . अपने अंतिम दिनों में जवाहर लाल ने शेख अब्दुल्ला से बात करके स्थिति को दुरुस्त करने की कोशिश फिर से शुरू कर दिया था. ६ अप्रैल १९६४ को शेख अब्दुल्ला को जम्मू जेल से रिहा किया गया और नेहरू से उनकी मुलाक़ात हुई. शेख अब्दुल्ला ने एक बयान दिया जिसे , कश्मीरी मामलों के जानकार बलराज पुरी ने लिखा था . शेख ने कहा कि उनके नेतृत्व में ही जम्मू कश्मीर का विलय भारत में हुआ था . वे हर उस बात को अपनी बात मानते हैं जो उन्होंने अपनी गिरफ्तारी के पहले ८ अगस्त १९५३ तक कहा था. नेहरू भी पाकिस्तान से बात करना चाहते थे और किसी तरह से समस्या को हल करना चाहते थे.. नेहरू ने इसी सिलसिले में शेख अब्दुल्ला को पाकिस्तान जाकर संभावना तलाशने का काम सौंपा.. शेख गए . और २७ मई १९६४ के ,दिन जब पाक अधिकृत कश्मीर के मुज़फ्फराबाद में उनके लिए दोपहर के भोजन के लिए की गयी व्यवस्था में उनके पुराने दोस्त मौजूद थे, जवाहरलाल नेहरू की मौत की खबर आई. बताते हैं कि खबर सुन कर शेख अब्दुल्ला फूट फूट कर रोये थे. नेहरू के मरने के बाद तो हालात बहुत तेज़ी से बिगड़ने लगे . कश्मीर के मामलों में नेहरू के बाद के नेताओं ने कानूनी हस्तक्षेप की तैयारी शुरू कर दी,..वहां संविधान की धारा ३५६ और ३५७ लागू कर दी गयी. इसके बाद शेख अब्दुल्ला को एक बार फिर गिरफ्तार कर लिया गया. इस बीच पाकिस्तान ने एक बार फिर कश्मीर पर हमला करके उसे कब्जाने की कोशिश की लेकिन पाकिस्तानी फौज ने मुंह की खाई और ताशकेंत में जाकर रूसी दखल से सुलह हुई. .
कश्मीर की समस्या में इंदिरा गाँधी ने भी हस्तक्षेप किया , शेख साहेब को रिहा किया और उन्हें सत्ता दी. . उसके बाद जब १९७७ का चुनाव हुआ तो शेख अब्दुला फिर मुख्य मंत्री बने . १९७७ का जनता पार्टी के राज में हुआ विधान सभा चुनाव बहुत ही निष्पक्ष चुनाव माना जाता है .शेख की मौत के बाद उनके बेटे फारूक अब्दुल्ला को मुख्य मंत्री बनाया गया. लेकिन अब तक इंदिरा गाँधी बहुत कमज़ोर हो गयी थीं , एक बेटा खो चुकी थीं और उनके फैसलों को प्रभावित किया जा सकता था . अपने परिवार के करीबी , अरुण नेहरू पर वे बहुत भरोसा करने लगी थीं, . अरुण नेहरू ने जितना नुकसान कश्मीरी मसले का किया शायद ही किसी ने नहीं किया हो . उन्होंने डॉ फारूक अब्दुल्ला से निजी खुन्नस में उनकी सरकार गिराकर उनके बहनोई गुल शाह को मुख्यमंत्री बनवा दिया . गुल शाह की कोई राजनीतिक हैसियत नहीं थी, बस एक योग्यता थी कि वे शेख अब्दुल्ला के दामाद थे .यह कश्मीर में केंद्रीय दखल का सबसे बड़ा और मूर्खतापूर्ण उदाहरण माना जाता है . हुआ यह था कि फारूक अब्दुल्ला ने श्रीनगर में कांग्रेस के विरोधी नेताओं का एक सम्मलेन कर दिया .और अरुण नेहरू नाराज़ हो गए . अगर अरुण नेहरू को मामले की मामूली समझ भी होती तो वे खुश होते कि चलो कश्मीर में बाकी देश भी इन्वाल्व हो रहा है लेकिन उन्होंने पुलिस के थानेदार की तरह का आचरण किया और सब कुछ खराब कर दिया . इतना ही नहीं . कांग्रेस ने घोषित मुस्लिम दुश्मन , जगमोहन को जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल बनाकर भेज दिया . उसके बाद तो हालात बिगड़ते ही गए. उधर पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल जिया उल हक लगे हुए थे. उन्होंने बड़ी संख्या में आतंकवादी कश्मीर घाटी में भेज दिया . बची खुची बात उस वक़्त बिगड़ गयी . जब १९९० में वी पी सिंह के काल में तत्कालीन गृह मंत्री, मुफ्ती मुहम्मद सईद की बेटी का पाकिस्तानी आतंकवादियों ने अपहरण कर लिया यही दौर है जब कश्मीर में खून बहना शुरू हुआ . और आज हालात जहां तक पंहुच गए हैं किसी की समझ में नहीं आ रहा है कि वहां से वापसी कब होगी.
इस तरह से हम देखते हैं कि कश्मीर के मामले में पिछले ७० वर्षों में बार बार केंद्रीय हस्तक्षेप हुआ है लेकिन सच्चाई यही है कि कश्मीर के बारे में नेहरू की सोच ही सही साबित होती रही है और रास्ता बातचीत का ही है जिसको मौजूदा गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने शुरू किया और अब एक अफसर को पूरी ताक़त देकर भेजा गया है. उम्मीद की जानी चाहिए कि नेहरू और पटेल की कश्मीर नीति को गरियाने वाले कुछ समय शांत रहेंगे और हालात को सामान्य बनाने में अपना शांत योगदान करेंगे .Shesh Narain Singh
Rajiv Tiwari13 November at 21:56 · जब जवाहरलाल नेहरू ने 3 सितंबर 1946 को अंतरिम सरकार में शामिल होने का फैसला किया तो उन्होंने आनंद भवन को छोड़ कर अपनी सारी संपत्ति देश को दान कर दी.नेहरू को पैसे से कोई खास लगाव नहीं था. उनके सचिव रहे एम ओ मथाई अपनी किताब रेमिनिसेंसेज़ ऑफ़ नेहरू एज में लिखते हैं कि 1946 के शुरू में उनकी जेब में हमेशा 200 रुपए होते थे, लेकिन जल्द ही यह पैसे ख़त्म हो जाते थे क्योंकि नेहरू यह रुपए पाकिस्तान से आए परेशान शरणार्थियों में बांट देते थे.
ख़त्म हो जाने पर वह और पैसे मांगते थे. इस सबसे परेशान हो कर मथाई ने उनकी जेब में रुपए रखवाने ही बंद कर दिए.
लेकिन नेहरू की भलमनसाहत इस पर भी नहीं रुकी. वह लोगों को देने के लिए अपने सुरक्षा अधिकारी से पैसे उधार लेने लगे.
ईमानदारी की मिसाल
मथाई ने एक दिन सभी सुरक्षा अधिकारियों का आगाह किया कि वह नेहरू को एक बार में दस रुपए से ज़्यादा उधार न दें.
मथाई नेहरू की इस आदत से इतने आजिज़ आ गए कि उन्होंने बाद में प्रधानमंत्री सहायता कोष से कुछ पैसे निकलवा कर उनके निजी सचिव के पास रखवाना शुरू कर दिए ताकि नेहरू की पूरी तनख़्वाह लोगों को देने में ही न खर्च हो जाए.
जहाँ तक सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी का सवाल है जवाहरलाल नेहरू का कोई सानी नहीं था.
जाने-माने पत्रकार कुलदीप नय्यर ने एक ऐसी बात मुझे बताई जिसकी आज के युग में कल्पना नहीं की जा सकती. कुलदीप ने कुछ समय के लिए नेहरू के सूचना अधिकारी के तौर पर काम किया था.
नेहरू शरणार्थियों की हरसंभव मदद करने की कोशिश करते थे
नेहरू की बहन विजय लक्ष्मी पंडित के शौक बहुत ख़र्चीले थे. एक बार वह शिमला के सर्किट हाउस में ठहरीं. वहाँ रहने का बिल 2500 रुपए आया.
वह बिल का भुगतान किए बिना वहाँ से चली आईं. तब हिमाचल प्रदेश नहीं बना था और शिमला पंजाब का हिस्सा होता था. तब भीमसेन सच्चर पंजाब के मुख्यमंत्री होते थे.
उनके पास राज्यपाल चंदूलाल त्रिवेदी का पत्र आया कि 2500 रुपये की राशि को राज्य सरकार के विभिन्न खर्चों के तहत दिखला दिया जाए. सच्चर के गले यह बात नहीं उतरी.
उन्होंने विजय लक्ष्मी पंडित से तो कुछ नहीं कहा लेकिन झिझकते हुए नेहरू को पत्र लिख डाला कि वही बताएं कि इस पैसे का हिसाब किस मद में डाला जाए. नेहरू ने तुरंत जवाब दिया कि इस बिल का भुगतान वह स्वयं करेंगे.
उन्होंने यह भी लिखा कि वह एक मुश्त इतने पैसे नहीं दे सकते इसलिए वह पंजाब सरकार को पांच किश्तों में यह राशि चुकाएंगे. नेहरू ने अपने निजी बैंक खाते से लगातार पांच महीनों तक पंजाब सरकार के पक्ष में पांच सौ रुपए के चेक काटे.
शोर मचाने वाला पंखा
नेहरू सोलह शयन कक्षों के तीन मूर्ति भवन में रहते ज़रूर थे लेकिन वहाँ भी सादगी से रहने पर ही ज़ोर रहता था. उनके शयन कक्ष में एयरकंडीशनर नहीं था.
गर्मी के दिनों में जब वह दिन के भोजन के लिए तीन मूर्ति भवन आते थे तो मुख्य बैठक के सोफ़े पर बैठ कर आराम करते थे. वहाँ पर आगंतुकों के आराम के लिए एयरकंडीशनर लगा हुआ था. इसके बाद वह थोड़ी देर लेटने के लिए अपने शयन कक्ष में चले जाते थे.
उनके बड़े से शयन कक्ष में छत के पंखे के अलावा एक बहुत पुराना टेबल फ़ैन लगा हुआ था जो बहुत आवाज़ करता था. एक दिन इंदिरा गाँधी की सचिव उषा भगत ने नेहरू की देखभाल करने वाले शख़्स से कहा कि इस पंखे को तुरंत बदल दीजिए.पंखा बदल दिया गया.
दूसरे दिन नेहरू का अर्दली दौड़ा हुआ उषा भगत के पास आया कि उन्होंने नया पंखा देखकर कोहराम मचा दिया है. अंतत: नेहरू पुराने शोर मचाने वाले पंखे को दोबारा लगवा कर ही माने.
कैडलक कार
नेहरू ने विदेशी दौरे में भेंट मिली कार राष्ट्रपति के वीआईपी कार बेड़े में शामिल करवा दी
1956 में नेहरू सऊदी अरब की राजकीय यात्रा पर गए. उन्हें रियाद में शाह सऊद के महल में ठहराया गया. उनके दल के सदस्य के हर बाथरूम में शैनल 5 परफ़्यूम की एक बड़ी बोतल रखी गई.
नेहरू रात में कोई किताब पढ़ना चाहते थे, इसलिए उन्होंने पूछा कि क्या उनके कमरे में टेबिल लैंप लगाया जा सकता है ?
महल के लोगों ने समझा कि शायद कमरे में रोशनी पर्याप्त नहीं है. इसलिए अगले दिन नेहरू के कमरे में और तेज़ रोशनी वाला लैंप और बल्ब लगा दिया गया. उसकी चमक को कम करने के लिए नेहरू के साथ गए मोहम्मद यूनुस ने उसके चारों तरफ कपड़ा लपेट दिया.
रोशनी तो कम हो गई लेकिन उससे निकलने वाली गर्मी ने कपड़े को करीब करीब जला ही दिया.
जब नेहरू वहां से वापस आने लगे तो शाह सऊद ने उनके लिए एक कैडलक कार और उनके दल के सदस्यों के लिए स्विस घड़ियाँ उपहार में भिजवाईं.
नेहरू इससे थोड़ा असहज हो गए. वह नहीं चाहते थे कि वह विदेशी दौरे से कार उपहार में ले कर लौंटे.
मोहम्मद यूनुस उनकी परेशानी समझ गए. उन्होंने कहा, ‘इनके पास और क्या है? अगर मोटर न दें तो फिर क्या दें? तेल का पीपा या रेत का बोरा?’ नेहरू इस पर ज़ोर से हंसे. उन्होंने कार का तोहफ़ा स्वीकार कर लिया और शाह सऊद को अपना धन्यवाद भिजवाया.
शाह जानना चाहते थे कि नेहरू को कार के लिए कौन सा रंग पसंद है. वैसे उन्होंने पहले से ही उनके लिए हरे रंग की कैडलक पसंद कर रखी थी.
नेहरू ने कहा आपकी पसंद मेरी पसंद. भारत आते ही उन्होंने यह कार राष्ट्रपति भवन के वीआईपी कार बेड़े में शामिल करवा दी.
57 साल पहले भेंट दी गई यह कार आज भी राष्ट्रपति भवन के कार बेड़े में मौजूद है.
हाज़िरजवाबी
बहुत व्यस्त होने के बावजूद वह अपने दोस्तों की चुटकियां लेने से पीछे नहीं हटते थे. एक बार नाश्ते की मेज़ पर नेहरू छूरी से सेब छील रहे थे.
इस पर उनके साथ बैठे रफ़ी अहमद किदवई ने कहा कि आप तो छिलके के साथ सारे विटामिन फेंके दे रहे हैं. नेहरू सेब छीलते रहे और सेब खा चुकने के बाद उन्होंने सारे छिलके रफ़ी साहब की तरफ बढ़ा दिए और कहा, “आपके विटामिन हाज़िर हैं. नोश फ़रमाएं.”
1962 के भारत- चीन युद्ध के बाद नेहरू की इस चंचलता को ग्रहण लग गया. उनकी आँखों की चमक न जाने कहाँ चली गई. वह अपने आप में घुटने लगे.’नेहरू जीवित हैं’
नेहरू की सादगी और ईमानदारी की दूसरी मिसाल मिलना बेहद मुश्किल
27 मई ,1964 को सुबह नौ बजे जाने माने लेखक और ब्ल्टिज़ के स्तंभकार ख़्वाजा अहमद अब्बास का फ़ोन बजा. ब्लिट्ज़ के संपादक रूसी करंजिया लाइन पर थे.
‘हेलो अहमद.’
’गुड मॉर्निंग रूसी.’
‘कुछ बहुत खराब या तो हो चुका है या होने जा रहा है.’ अब्बास ने पूछा नेहरू ठीक ठाक तो हैं.
करंजिया ने कहा नहीं उनको एक और स्ट्रोक हुआ है. तुम तुरंत दफ़्तर आ जाओ. तुम्हें उन पर चार पेज का फ़ीचर लिखना है.
जैसे ही अब्बास ब्ल्टिज़ के दफ़्तर पहुंचे करंजिया ने कहा तुम्हारे पास नेहरू के ऊपर लेख लिखने के लिए चार घंटे हैं.
ख़्वाजा अहमद अब्बास ने लिखना शुरू किया. आर्ट विभाग का एक व्यक्ति उनके पास आ कर कहने लगा, ‘पहले हेडलाइन लिखिए ताकि मैं उस पर काम करना शुरू कर दूँ.’
अब्बास ने कांपते हाथों से लिखा….. नेहरू… थोड़ी देर सोचा और फिर लिखा…. लिव्स. दो बजे नेहरू का देहांत हो गया. अगले दिन ब्ल्टिज़ की तीन इंच की बैनर हेड लाइन थी….. नेहरू लिव्स..)————————————————————Nitin Thakur
5 hrs ·
ये अमित मालवीय है. बीजेपी आईटी सेल का हेड. नेहरू की इन तस्वीरों का कोलाज लगाकर उसने क्या साबित किया वो आप पढ़ सकते हैं. मालवीय नेहरू को चरित्रहीन प्रमाणित करना चाहता है और साथ ही संदिग्ध सीडी का सहारा लेकर हार्दिक का चरित्र हनन भी कर रहा है. मोदी जी अगर छप्पन इंच का सीना रखते हैं तो अपने सोशल मीडिया योद्धा मालवीय के मन की बात मंच से कह कर दिखा दें.Ashok Kumar Pandey दो में वह अपनी “नन्हीं” विजयालक्ष्मी पंडित के साथ हैं। एक में उनकी बिटिया है।
ये किस भारतीय संस्कृति के रखवाले हैं जिसमें बहन और भांजी को गले से लगाना, बिटिया से कम उम्र की कलाकार को प्रोत्साहन देना या किसी विदेशी राजनयिक की पत्नी के सम्मान में लाइटर सुलगा देना आपत्तिजनक होता है? इतनी भयावह यौन कुंठा का इलाज़ होना चाहिए, शमन करते करते तो ये देश का कबाड़ा कर देंगे।——————————————————————————————————————————————————-जितना मेने अध्ययन किया हे तो उससे ये पता चलता हे की शायद ही किसी और ने देश और इंसानियत के चक्कर में इस कदर अपने जीवन से मिल रहे प्रेम सेक्स और आकर्षण का बलिदान किया हो त्याग किया हो जानबूझ कर छोड़ा हो जितना नेहरू ने किया महिलाये नेहरू पर फ़िदा थी ज़ाहिर हे एक इतना वीर विद्वान बेखोफ ईमानदार सादगी पसंद रोचक विश्वनेता जननेता जाहिर हे की बहुत स्त्रियाँ नेहरू को चाहती थी मगर देश के लिए इंसानियत के लिए काम जेल आंदोलन फिर बीवी की लम्बी बीमारी फिर एक नए देश का निर्माण के लिए काम फिर बेटी को देखते हुए दूसरी शादी ना करना वास्तव में नेहरू जितने प्रेम आकर्षण और सेक्स के हक़दार थे उसका दस % भी उन्हें नहीं मिला होगा क्योकि उन्होंने त्याग दिया था
Arun Maheshwari
12 hrs ·
इंदिरा गांधी होने का मतलब
कल से इंदिरा गांधी का जन्म शताब्दी वर्ष शुरू होगा ।
अपने लगभग पंद्रह साल के प्रधानमंत्रित्व (1966-1977 ; 1980-1984) के दौरान शुरू से ही उन्हें कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा ।
शुरू में कांग्रेस दल के अंदर के सिंडिकेट धड़े के दबाव आए। इंदिरा ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण और राजाओं के प्रिवि पर्स को ख़त्म करके व्यापक जन समर्थन के बल पर उन्हें पूरी तरह निरस्त कर दिया ।
फिर बांग्लादेश के मुक्ति युद्ध के समय मुक्ति योद्धाओं को सैनिक सहायता दे कर और सीधे भारतीय सेना को उतार कर उसने धर्म पर आधारित राष्ट्र की थिसिस को खारिज कर दिया । इसमें भी जनता का उसे भरपूर समर्थन मिला ।
इस प्रकार अपने प्रारंभिक उठान के दौर में ही इंदिरा गांधी ने व्यापक जन-समर्थन से बड़े-बड़े कदम उठाए । लेकिन इसी दौर में उनकी छवि को जीवन से इतना बड़ा बना दिया गया जिसके चलते उनमें एक तानाशाह की प्रवृत्ति पैदा हुई और 1975 में उन्होंने आंतरिक आपातकाल के जरिये सारी सत्ता को अपने हाथ में ले लिया । 1977 में वे बुरी तरह पराजित हुई ।
लेकिन इसके साथ ही फिर इंदिरा ने जनता की ओर रुख़ किया । जनता पार्टी की सरकार अपने अन्तर्विरोधों के कारण अढ़ाई साल में ही गिर गई और 1980 में फिर इंदिरा गांधी सत्ता पर आ गई ।
1980 में सत्ता पर आने के बाद ही उनके लिये बड़ी चुनौती पैदा हुई पंजाब में सिख आतंकवाद की । इंदिरा ने ऑपरेशन ब्लू स्टार (जून 1984) के जरिये अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में सेना भेज कर उसे जड़ से उखाड़ दिया, लेकिन इसकी उन्हें बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ी । चार महीने बाद ही 31 अक्तूबर 1984 के दिन उनके दो सिख सुरक्षाकर्मियों ने उनकी हत्या कर दी ।
गौर करने की बात है कि इंदिरा गांधी ने पूरे राजनीतिक जीवन में बार-बार जनता के बीच से अपने लिये शक्ति हासिल की और बड़े से बड़े फैसले के वक्त भी कभी अस्थिरता और अनिर्णय का परिचय नहीं दिया । 1971 में पाकिस्तान को बुरी तरह से पराजित करने के बाद भी इंदिरा गांधी में कोई अति-उत्साह नहीं देखा गया और न ही इसके पहले बैंकों के राष्ट्रीयकरण और प्रिवि पर्स की समाप्ति के वक्त उन्होंने कोई उछल-कूद की । आपरेशन ब्लु स्टार का निर्णय लेते समय भी वे पूरी तरह से धीर-स्थिर बनी रही ।
इंदिरा गांधी की तुलना में जब हम आज के प्रधानमंत्री मोदी को रखते हैं, मोदी के चरित्र का उथलापन, उसकी अगंभीरता और विवेकशून्यता जैसे निपट नंगे रूप में हमारे सामने दिखाई देने लगते हैं । मोदी हमेशा जनता से युद्ध की मुद्रा में रहते हैं, आम लोगों को सता कर ख़ुश होते हैं । इन्होंने सामान्य लोगों को चोर बताते हुए उन्हें दंडित करने के लिये नोटबंदी और विकृत जीएसटी की तरह के कदम उठाए । इसी प्रकार, इंदिरा के विपरीत, चंद बड़े लोगों के लिये मोदी सरकार के ख़ज़ाने की झोली खोल कर खड़े दिखाई देते हैं । मोदी बोलते ज्यादा और काम कम करते हैं । अमेरिका सहित विदेशी राष्ट्राध्यक्षों को गले लगाने की इनकी आतुरता आँखों को और भी चुभने वाली होती है ।
मोदी सिर्फ साढ़े तीन साल के शासन के बाद ही हाँफने लगे हैं । आज स्थिति इतनी बदतर है कि 2019 के पहले ही उन्हें गद्दी छोड़ कर राजनीति के किसी उपेक्षित कोने में दुबक कर बैठना पड़ सकता है । इसीलिये वे अमेरिकी प्राइवेट एजेंसियों से अपने और अपनी सरकार के लिये प्रमाण पत्र जुटाते हैं । वास्तविकता यह है कि जनता के बीच मोदी की कोई साख नहीं बची है और काला धन आदि के विरुद्ध इनकी सारी बातें लोगों को कोरी चकमेबाजी लगने लगी है ।
इंदिरा ने सिख आतंकवाद पर निर्णायक प्रहार किया और मोदी हिंदू आतंकवादी ताकतों को बढ़ावा दे रहे हैं ।Arun Maheshwari
प्रसन्न प्रभाकर
12 hrs ·
अच्छा ठीक है, सरदार पटेल ने नेहरू की इच्छा के विरुद्ध सोमनाथ में मंदिर स्थापित करवा दिया।
आज राजनाथ सिंह, नरेंद्र मोदी की इच्छा के विरुद्ध एक कदम भी उठाकर दिखा दें !!
उस वक्त नेहरू सैद्धान्तिक थे, तो पटेल हमविचार होते हुए भी, जूनागढ़ रियासत की जनता के साथ किये वायदे के साथ थे। बातचीत उन्होंने ही की थी न।
यही महीन फर्क होता है जब हमविचार होते हुए भी दो लोग अलग-अलग कदम उठाते हैं। मिली परिस्थितियों से फर्क आ ही जाता है। यदि सरदार पटेल के मन में शुरुआत से इस मंदिर के पुनर्निर्माण का ध्येय होता तो जाने कितनी बार इस घटना के पहले इस मुद्दे को उठा चुके होते। उठाया क्या? कभी भी नहीं।
स्पष्ट है- रणनीति मात्र थी।
इसे सैद्धान्तिक बनाकर पेश न किया जाए।
आज हम याद रखते हैं कि नेहरू ने राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद को भी रोकना चाहा। इस घटना के बाद भी पटेल ने नेहरू को अपना लीडर माना और राजेन्द्र प्रसाद ने अपनी तरफ से पहल करते हुए विदेश गए नेहरू को भारतरत्न के लिए नामित किया।
जी यह प्रोपेगंडा है कि नेहरू ने स्वयं को भारतरत्न दिया। उस समय प्रक्रिया अलग होती थी।
आज के मोदी होते तो राजनाथ बर्खास्त हो चुके होते और महामहिम राष्ट्रपति को गालियां पड़ रही होतीं।
प्रसन्न प्रभाकर
Ashok Kumar Pandeyकुछ बातें नेहरु के बहाने
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जवाहर लाल नेहरु का ज़िक्र सोशल मीडिया, अखबारों और चंडूखानों में केवल 14 नवम्बर तक महदूद नहीं रहता. वह एक तरफ आज़ाद हिन्दुस्तान के निर्माता हैं तो दूसरी तरफ़ कश्मीर को राष्ट्र संघ में ले जाके उलझाने वाले. एक तरफ आधुनिक राजनेता हैं तो दूसरी तरफ के लिए चरित्रहीन. एक तरफ के लिए सेकुलरिज्म के प्रतीक हैं तो दूसरी तरफ के लिए भारतीय संस्कृति का विलोम. इन सबके बीच नेहरु असल में हैं क्या?
मुझे सबसे पहले भगत सिंह के लेख “साम्प्रदायिकता और उसका इलाज” का वह प्रसंग याद आता है जिसमें भगत सिंह पंजाब के किसी जगह की उस सभा का ज़िक्र करते हैं जिसमें एक मुस्लिम नेता बार-बार ख़ुदा का ज़िक्र करते हैं तो नेहरु सभाध्यक्ष के रूप में उन्हें टोकते हैं कि धार्मिक बातें कांग्रेस के मंच से मत कीजिए. विडंबना देखिये कि उनके दुश्मनों ने उन्हें मुस्लिम तुष्टीकरण के प्रतीक के रूप में बदल दिया!Ashok Kumar Pandey
फिर एक पिता के रूप में इंदिरा गांधी को लिखे उनके पत्र याद आते हैं. याद तिलंगाना में कम्युनिस्टों का वह क्रूर नरसंहार भी आता है जिसके नायक भले वल्लभ भाई पटेल हों पर प्रधानमंत्री के रूप में नेहरु का पूरा समर्थन था. कश्मीर में शेख साहब से उनकी दोस्ती याद आती है. याद आता है कि जब माउंटबेटन के सामने पटेल उस “सड़े” सेव को पाकिस्तान को देने पर लगभग सहमत हो गए थे तो नेहरु ने कश्मीरी नेतृत्व और जनता के साथ उसे भारत से जोड़े रखने और उसके सेकुलर फैब्रिक को बचाए रखने की कैसी कोशिशें की थीं. उनकी प्रतिबद्धता ही थी लोकतंत्र में और कश्मीरी जनता पर भरोसा कि मामला संयुक्त राष्ट्र में गया…फिर शेख साहब की गिरफ़्तारी..चीजें बहुत उलझी हैं. (अभी गंभीर समाचार में विस्तार से लिखा है, किताब में तो आएगा ही)
नेहरु समाजवादी नहीं थे. उन अर्थों में तो बिलकुल नहीं जिन अर्थों में उस ज़माने में चीन या रूस समाजवादी थे. आर्थिक विकास का वह माडल असल में राजकीय पूंजीवाद था. उसकी ज़रुरत थी क्योंकि पूंजीपति जिस हाल में थे उन्हें जड़ें ज़माने के लिए सरकार का संरक्षण चाहिए था, इन्फ्रास्ट्रकचर विकसित करना उनके बस की बात नहीं थी. तो मिश्रित अर्थव्यवस्था के अलावा कोई चारा नहीं था.
लेकिन नेहरु सेक्युलर थे. एक आधुनिक बुर्जुआ…एक स्वप्नदर्शी. उन्होंने सिर्फ फैक्ट्रियां नहीं बनाईं, संस्थाएं बनाई. कला, संस्कृति, विज्ञान की आधुनिक संस्थाएं. सज्जाद ज़हीर जब पाकिस्तान की जेल में न हिन्दुस्तान के नागरिक थे न पाकिस्तान के तो वहां इन्कलाब करने भेजे गए उस अदबी सिपाही को हिन्दुस्तान वापस लाने वाले नेहरु थे. नेहरु थे जिन्होंने हर तरह के दक्षिणपंथ के खिलाफ पार्टी के भीतर और बाहर लड़ाई लड़ी और कल किसी ने जब लिखा कि पाकिस्तान और हिन्दुस्तान के बीच का फ़र्क नेहरु है, तो मैं उससे पूरी तरह सहमत था/हूँ. धर्म और जाति से मुक्त गैर कम्युनिस्ट नेताओं में वह अनूठे हैं.
..और मुझे एडविना माउंटबेटन का वह अधेड़ प्रेमी भी याद आता है. प्रेम सिर्फ एक मनुष्य कर सकता है. एक संवेदनशील मनुष्य. राजनीतिकों के प्रेम प्रसंगों से सारी दुनिया परिचित है. उससे ज्यादा व्याभिचार से. लेकिन नेहरु और एडविना का प्रेम व्याभिचार नहीं था..प्रेम था रूहानी. जिस्मानी हो न हो मुझे फ़र्क नहीं पड़ता. जब आष्ट्रेलियाई राजनायिक की पत्नी का सिगरेट जलाते नेहरु की फोटो को एडविना के साथ का बता के संघी जमात उनके चरित्र को लांछित करती है तो वह अपनी स्त्री विरोधी मनुवादी मानसिकता के चलते. नेहरु एक आधुनिक पुरुष थे, स्त्री में प्रति स्वाभाविक सम्मान से भरे. यह उन्हें उस दौर के तमाम तमाम दूसरे लोगों से अलग करता है.
वह मेरे मेंटर तो छोडिये, वैचारिक मित्र भी नहीं, . लेकिन अगर तमाम मुद्दों पर शत्रु भी हैं तो सम्माननीय. जिनसे बहस की जा सकती है…जिनके साथ चाय पी जा सकती है. जिनसे असहमत होके बिना सर कटाए निकला जा सकता है. उनके जन्मदिवस पर मैं उन्हें सम्मान से याद कर रहा हूँ।
Ashok Kumar Pandey
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Nitin Thakur
4 hrs ·
काम की बात हमेशा एक लाइन में नहीं की जा सकती, और ना ही एक मिनट में। मैंने ये लिखने में भी घंटों खपाए हैं। बात नेहरू की है और मुझे स्पष्ट करने के लिए थोड़ी और लाइनें लिखने की इजाजत चाहिए होगी। जिनके पास वक्त ना हो वो दूसरे ज़रूरी काम निपटाने के लिए आगे बढ़ सकते हैं। कल मैंने एक पोस्ट लगाई थी जिसमें नेहरू का चरित्रहनन उनकी पत्नी कमला नेहरू और उनकी बीमारी को ढाल बनाकर किया जा रहा था। हम सब इस तरह की पोस्ट्स पढ़ते ही रहते हैं। ये भी जानते हैं कि इन पोस्ट्स के पीछे वो खास तबका है, जो देश की राजनीति में अपनी पसंद के लोगों को स्थापित करने के लिए नेहरू की निंदा किसी भी स्तर पर जाकर करता है। मैं उस पोस्ट के हर हिस्से का जवाब इस उम्मीद से आगे लिखने जा रहा हूं कि इसे आप ना सिर्फ पढ़ेंगे बल्कि आगे भी बढ़ाएंगे। पोस्ट लंबी ना हो इसलिए इसे दो भागों में लिखूंगा और एक ही साथ पढ़ने के लिए मेरे ब्लॉग पर जाया जा सकता है।
मूल पोस्ट का पहला हिस्सा –
क्या आप को यह पता है जवाहर लाल नेहरु ने अपनी पत्नी के साथ क्या किया ?जवाहरलाल नेहरु की पत्नी कमला नेहरु को टीबी हो गया था .. उस जमाने में टीबी की दहशत ठीक ऐसा ही थी जैसे आज एड्स की है .. क्योंकि तब टीबी का इलाज नही था और इन्सान तिल तिल तडप तडप कर पूरी तरह गलकर हड्डी का ढांचा बनकर मरता था … और कोई भी टीबी मरीज के पास भी नहीं जाता था क्योंकि टीबी सांस से फैलती थी … लोग मरीजोंको पहाड़ी इलाके में बने टीबी सेनिटोरियम में भर्ती कर देते थे ..
नेहरु ने अपनी पत्नी को युगोस्लाविया [आज चेक रिपब्लिक] के प्राग शहर में दुसरे इन्सान के साथ सेनिटोरियम में भर्ती कर दिया ..
कमला नेहरु पुरे दस सालो तक अकेले टीबी सेनिटोरियम में पल पल मौत का इंतजार करती रही.. लेकिन नेहरु दिल्ली में एडविना बेंटन के साथ इश्क करते थे.. सबसे शर्मनाक बात तो ये है की इस दौरान नेहरु कई बार ब्रिटेन गये लेकिन एक बार भी उन्होंने प्राग जाकर अपनी धर्मपत्नी का हालचाल नही लिया।
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जवाब- पहली बात तो ये है कि एड्स संक्रमण से नहीं फैलता जबकि टीबी फैलता है, इसलिए उस बीमारी में मरीज़ को लोगों से अलग रखा जाना मजबूरी होती है। कमला नेहरू इसकी अपवाद नहीं थीं। सबसे पहले तो साल 1934 के अंतिम महीनों में सेहत खराब होने के बाद उनकी देखरेख के लिए इलाहाबाद के स्वराज भवन में डिस्पेंसरी बनवाई गई। नेहरू उस वक्त देश की कई जेलों में बंद रहे। अपनी आत्मकथा में वो खुद 1934 के अगस्त महीने का ज़िक्र करते हैं जब उन्हें ग्यारह दिनों के लिए देहरादून जेल से छोड़ा गया ताकि वो बीमार पत्नी को देखने के लिए जा सकें। अपनी आत्मकथा के अध्याय ‘ग्यारह दिन’ में वो विस्तार से जो लिखते हैं उससे कोई भी अनुभव कर सकता है कि अपनी पत्नी को खो देने का डर उन्हें कैसे परेशान रखता था। 11 दिन पत्नी के पास रहने के बाद उन्हें नैनी जेल में डाल दिया गया।
अपनी आत्मकथा के ‘फिर जेल में’ अध्याय में नेहरू बताते हैं कि किस तरह कमला की फिक्र की वजह से उन दिनों राजनीति उनेक दिमाग से एकदम निकल गई। इसके बाद नेहरू को अल्मोडा ज़िला जेल में शिफ्ट कर दिया गया ताकि वो पास ही के भुवाली में इलाज कराने पहुंची अपनी पत्नी से मुलाकात करते रह सकें । खुद नेहरू लिखते हैं कि साढ़े तीन महीनों में वो 5 (भोवाली अस्पताल की रिकॉर्डबुक में 6 मुलाकात दर्ज हैं) बार कमला नेहरू से मिल सके, जबकि भारत मंत्री सर सेम्युअल होर अक्सर ये कहते रहते थे कि नेहरू को हफ्ते में एक या दो बार पत्नी से मिलने दिया जाता है। खैर नेहरू ने इन मुलाकातों के लिए अंग्रेज़ी सरकार का शुक्रिया ही किया। इसी अल्मोड़ा जेल में नेहरू ने अपनी आत्मकथा का अंत किया और उपसंहार में तारीख 25 अक्टूबर 1935 को लिखा कि पिछले महीने मेरी पत्नी भुवाली से यूरोप इलाज कराने गई है। उसके यूरोप चले जाने से मेरा मुलाकात करने के लिए भुवाली जाना बंद हो गया है। बाद के दिनों में उन्होंने किताब में जोड़ा था कि गत 4 सितंबर को एकाएक मैं अल्मोड़ा जेल से छोड़ दिया गया क्योंकि समाचार मिला था कि मेरी पत्नी की हालत नाज़ुक हो गई है। स्वार्ट्सवाल्ड (जर्मनी) के बेडनवीलर स्थान पर उसका इलाज हो रहा था। मुझसे कहा गया कि मेरी सज़ा मुल्तवी कर दी गई है और मैं अपनी रिहाई के साढ़े पांच महीने पहले छोड़ दिया गया। मैं फौरन हवाई जहाज से यूरोप को रवाना हुआ। (ये वो दौर था जब नेहरू को पहली बार आर्थिक संकट का सामना भी करना पड़ा। उन्होंने पत्नी के इलाज के लिए बड़ी मुश्किल से रुपए का इंतज़ाम किया। बिरला परिवार ने मदद का जो प्रस्ताव रखा वो नेहरू ने ठुकरा दिया।)
नेहरू पांच साल बाद अपनी आत्मकथा में छोटा सा हिस्सा जोड़कर बताते हैं कि बेडनवीलर में ही उन्होंने अपनी किताब को थोड़ा और विस्तार दिया था। कमला का देहांत हो जाने के बाद वो खुद को परिस्थिति के अनुकूल नहीं बना पाए। भीड़,कामकाज और अकेलेपन ने उनके जीवन में घर कर लिया।
बहरहाल नेहरू द्वारा दी गई जानकारी से पता चलता है कि कमला नेहरू को इलाज के लिए जर्मनी भेजा गया, ना कि पोस्ट लेखक के हिसाब से ‘प्राग में किसी दूसरे इंसान के साथ’। आत्मकथा से ही साबित होता है कि नेहरू का अपनी पत्नी से कितना प्रेम था। उनकी आत्मकथा में इस बात का ज़िक्र भी मिलता है कि स्वतंत्रता संघर्ष में व्यस्तता के बावजूद जवाहरलाल नेहरू कमला का इलाज कराने के लिए उनके साथ में कोलकाता तक की यात्रा करते थे। और तो और इससे पहले 1925 में कमला का कई महीनों तक लखनऊ में इलाज हुआ लेकिन जब डॉक्टरों ने साफ कहा कि उन्हें स्विट्ज़रलैंड ले जाया जाए तो नेहरू खुद अपनी पत्नी और बेटी इंदिरा को लेकर मार्च 1926 में बंबई से वेनिस रवाना हुए । इस सफर में उनकी बहन और बहनोई भी थे। ज़ाहिर है कि वो अपनी पत्नी को लेकर बेहद संजीदा थे। वहां कमला नेहरू का इलाज स्विट्ज़रलैंड के जिनेवा और मोंटाना के पहाड़ी सेनिटोरियम में चला।
कमला जी का देहांत स्विट्ज़रलैंड के लोज़ान शहर (बेडनवीलर के बाद उनका इलाज यहां भी चला) में 28 फरवरी 1936 में हो गया था लेकिन पोस्टलेखक के हिसाब से वो 10 साल तक सेनिटोरियम में रहीं जो सरासर मनगढ़ंत बात है। पोस्ट लेखक नेहरू पर इतना नाराज़ है कि लिखता है नेहरू उन दस सालों तक दिल्ली में एडविना से इश्क फरमाते रहे जबकि एडविना अपने पति के साथ दिल्ली की धरती पर 1947 में पधारीं। ये भी झूठ है कि कमला की बीमारी के दौरान नेहरू कई बार लंदन गए और एक बार भी उनका हालचाल नहीं लिया। ज़ाहिर है, नेहरू 1935-36 के दौरान ब्रिटेन कभी नहीं गए बल्कि दूसरी बार कांग्रेस का अध्यक्ष चुने जाने पर वो हवाई जहाज से हिंदुस्तान ही आए लेकिन पत्नी की एकदम खराब हो चुकी हालत की खबर पाते ही वो फिर से स्विट्ज़रलैंड की तरफ दौड़े। बाकी बातें पोस्ट के दूसरे भाग में….
(संदर्भ- मेरी कहानी (नेहरू की आत्मकथा), अहा ज़िंदगी (नवंबर 2016), टाइम्स ऑफ इंडिया 14 नवंबर 2014 NEHRU & BOSE (Parallel Lives), FEROZE the forgotten GANDHI)Follow
Nitin Thakur
2 hrs ·
ये जवाहरलाल नेहरू और कमला नेहरू के बारे में किए गए दुष्प्रचार के जवाब का दूसरा भाग है। पहले भाग के लिए पिछली पोस्ट पढ़ें।
मूल पोस्ट का दूसरा हिस्सा- नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को जब पता चला तब वो प्राग गये .. और डाक्टरों से और अच्छे इलाज के बारे में बातचीत की .. प्राग के डाक्टरों ने बोला की स्विट्जरलैंड के बुसान शहर में एक आधुनिक टीबी होस्पिटल है जहाँ इनका अच्छा इलाज हो सकता है..
तुरंत ही नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने उस जमाने में 70 हजार रूपये इकट्ठे किये और उन्हें विमान से स्विटजरलैंड के बुसान शहर में होस्पिटल में भर्ती किया ..
लेकिन कमला नेहरु असल में मन से बेहद टूट चुकी थी.. उन्हें इस बात का दुःख था की उनका पति उनके पास पिछले दस सालो से हाल चाल लेने तक नही आया और गैर लोग उनकी देखभाल कर रहे है..दो महीनों तक बुसान में भर्ती रहने के बाद 28 February 1936 को बुसान में ही कमला नेहरु की मौत हो गयी..
उनके मौत के दस दिन पहले ही नेताजी सुभाषचन्द्र ने नेहरु को तार भेजकर तुरंत बुसान आने को कहा था .. लेकिन नेहरु नही आये..फिर नेहरु को उनकी पत्नी की मौत की खबर भेजी गयी .. फिर भी नेहरु अपनी पत्नी के अंतिम संस्कार में भी नही आये ..
अंत में स्विटजरलैंड के बुसान शहर में ही नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने नेहरु की पत्नी कमला नेहरु का अंतिम संस्कार करवाया. जिस व्यक्ति ने अपनी पत्नी के साथ ऐसा व्यवहार किया उसे हम चाचा नेहरू कहते हैं।
यह मेसेज इतना फैलाओ की लोग असलियत को जाने और इनकी फर्जी चाचा की पदवी निकाल ली जाये।।।
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जवाब- कमला नेहरू को इलाज के लिए अपनी बेटी और डॉक्टर मदन अटल के साथ भारत से वियना के लिए रवाना होना पड़ा था। जवाहरलाल नेहरू जेल में कैद थे। कमला नेहरू कई बार जेल जाकर और अंग्रेज़ी सरकार की नज़रों में आकर देश की राजनीति में नाम कमा चुकी थीं। लिहाज़ा ऑस्ट्रिया के वियना में सुभाषचंद्र बोस और एसीएन नांबियार ने उनका स्वागत किया। सुभाषचंद्र बोस और नेहरू कुछ मतभेदों के बावजूद बेहद करीबी दोस्त थे। अक्टूबर 1935 को सुभाष ने नेहरू को खत लिखकर कहा कि इस परेशानी में मैं आपके जिस काम भी आ सकूं मुझे बताइएगा। देश में अंग्रेज़ों से टकरा रहे नेहरू की सबसे अच्छी मदद यही हो सकती थी कि सुभाषचंद्र बोस कमला नेहरू का ख्याल रखते। उन्होंने यही किया। वो कमला नेहरू के साथ बर्लिन तक आए। उन्होंने इसके बाद कमला की बीमारी और इलाज का लगातार जायज़ा लिया। अक्टूबर के अंत में वो कमला को देखने के लिए बीडनवेलर भी आए, और आखिर में जब कमला नेहरू ने दम तोड़ा तो वो लोज़ान शहर में ही मौजूद थे। जवाहरलाल नेहरू भी पत्नी के साथ ही थे। सुभाष ने कमला नेहरू के अंतिम संस्कार में भी काफी मदद की। परदेस में ऐसे मुश्किल वक्त में नेहरू और सुभाष एक-दूसरे के बेहद करीब आ गए। ये वही वक्त था जब सुभाषचंद्र बोस यूरोप में घूमकर लोगों से मिल रहे थे। वो मुसोलिनी से भी मिले। यहां मैं एक बात जोड़ दूं कि नेहरू भी इस दौरान मुसोलिनी से मिलना चाहते थे और थोड़े वक्त के लिए जब वो राजनीतिक कार्यों के लिए जर्मनी से भारत लौट रहे थे तो रोम में जहाज पहुंचने पर मुसोलिनी ने उन्हें न्यौता भी भेजा। बावजूद इसके नेहरू ने मुसोलिनी से मुलाकात के लिए साफ इनकार कर दिया जिसकी वजह मुसोलिनी का जारी हो चुका युद्ध अभियान था। खैर, सुभाषचंद्र बोस जर्मनी में थे और एमिली से उनका प्यार परवान चढ़ रहा था और शायद ये उसी का असर था जो उन्हें नेहरू और कमला के संबंधों के प्रति भावुक बना रहा था। सुभाष ने कठिन समय में जवाहरलाल नेहरू का हौसला बढ़ाया जो कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष थे। आगे चलकर नेहरू ने भी सुभाष का समर्थन किया और इसके बाद वो अध्यक्ष बने। हालांकि बाद में दोनों के वैचारिक मतभेद तेज़ी से उभरे भी।
इतनी बातों से कई चीज़ें स्पष्ट होती हैं। एक तो ये कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस यूरोप में कमला नेहरू के साथ ज़रूर थे लेकिन इसकी वजह नेहरू की पत्नी के प्रति बेरुखी नहीं थी। वो दोस्त का फर्ज़ अदा कर रहे थे। दूसरी बात, नेहरू लगातार कमला नेहरू के साथ उनकी मौत तक बने रहे, बस बीच में उनकी तबीयत थोड़ी सुधरने के दौरान कांग्रेस का काम संभालने के लिए भारत आए। तीसरी बात, पोस्ट में उल्लिखित बुसान जैसा कोई शहर स्विट्ज़रलैंड में है ही नहीं। चौथी बात, नेहरू अपने पैसों से कमला नेहरू का इलाज करा रहे थे जबकि वो भारी आर्थिक तंगी से गुज़र रहे थे। सुभाषचंद्र बोस को कमला के इलाज के लिए रकम नहीं जुटानी पड़ी। पांचवीं बात, नेहरू ने कमला नेहरू की अस्थियां भारत लाकर त्रिवेणी में बहाई जिससे स्पष्ट होता है कि उनके मन में पत्नी को लेकर प्रेम और सम्मान अंत तक रहा। अपनी आत्मकथा में वो पत्नी के जाने के बाद अपनी बेहाली का विस्तृत ज़िक्र करते हैं।
(संदर्भ- मेरी कहानी (नेहरू की आत्मकथा), अहा ज़िंदगी (नवंबर 2016), टाइम्स ऑफ इंडिया 14 नवंबर 2014 NEHRU & BOSE (Parallel Lives), FEROZE the forgotten GANDHI)
Surendra Kishore
3 November at 19:55 ·
मैं अपने पुराने लेख देख रहा था।उसमें इस लेख पर नजर पड़ी। 14 नवंबर आ रहा है।तब तक के लिए मैं इंतजार नहीं कर सकता।आजादी की लड़ाई के हीरो जवाहरलाल जी के बारे में आज की पीढ़ी को बताने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूं।
भले जवाहर लाल जी से आजादी के बाद जो उम्मीदें थीं,वे पूरी नहीं हुईं,तो क्या उससे आजादी की लड़ाई में उनके योगदान को कम करके आंका जा सकता है ?
पढि़ए कितना सुखमय जीवन छोड़ कर वे संघर्ष में कूद पड़े थे।
— ‘जालियांवाला बाग’ ने बदली नेहरू परिवार की जीवन शैली–
–सुरेंद्र किशोर —
जालियांवाला बाग के नर संहार ने नेहरू परिवार की जीवन-शैली बदल दी । वह परिवार अंग्रेजों के खिलाफ अभियान में शामिल हो गया।रौलट एक्ट के विरोध में गांधी के उठ खड़ा होने की खबर समाचार पत्रों में पढ़ कर युवा जवाहर लाल नेहरू जरूर राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल होना चाहते थे।पर, उनके पिता मोती लाल नेहरू का तब इस बात पर विश्वास नहीं था कि मुट्ठी भर लोगों के जेल चले जाने से देश का कोई भला हो सकता है।
उधर जवाहर लाल, गांधी के साथ जुड़ने को उतावले थे।इस सवाल पर मोती लाल नेहरू और जवाहर लाल नेहरू के बीच अक्सर बहस होती थी।जवाहर लाल की बहन कृष्णा हठी सिंग ने लिखा है कि ‘इससे हमारे घर की शांति ही भंग हो गई थी।’
अपनी पुस्तक ‘इंदु से प्रधान मंत्री’ में कृष्णा ने लिखा है कि ‘हर स्थिति में से रास्ता निकालने में कुशल मेरे पिता जी ने आखिर इसका हल भी खोज ही लिया।उन्होंने गांधी जी को ही इलाहाबाद बुलाया।इस तरह गांधी जी हमारे यहां पहली बार आए,और तब उनका और नेहरू परिवार का पारस्परिक स्नेह क्रमशः गाढ़ा होता गया।’
‘लंबी चर्चाओं के दौरान पिता जी और गांधी जी ने भारत की समस्याओं के अपने -अपने हल प्रस्तुत किए।लेकिन उनकी चर्चा जवाहर पर केंद्रित हो गई।क्योंकि पिता जी किसी ऐसे अकाट्य तर्क की खोज में थे जिससे जवाहर को सत्याग्रह सभा में शामिल होने से रोका जा सके।इसलिए तो गांधी को उन्होंने अपने यहां बुलाया था। गांधी जी बिलकुल ही नहीं चाहते थे कि इस सवाल को लेकर पिता-पुत्र में मन मुटाव हो, इसलिए वह पिता जी की इस राय से सहमत हो गए कि जवाहर लाल को जल्दीबाजी में कोई फैसला नहीं करना चाहिए। लेकिन गांधी जी की यह सलाह बेकार ही साबित हुई। क्योंकि घटनाक्रम ने ऐसा मोड़ लिया जिससे सब कुछ गड़बड़ा गया। वह लोम हर्षक घटना थी पंजाब के एक शहर अमृतसर में निहत्थे लोगों पर गोरी हुकूमत का खूनी हमला।’
कृष्णा हठी सिंग ने उन दिनों के घटनाक्रम को विस्तार से लिखा है,‘ गांधी जी अपने आंदोलन को वेग देने के लिए इलाहाबाद से दिल्ली चले गए।वहां उन्होंने रौलट एक्ट को रद करने की मांग के समर्थन में 31 मार्च 1919 को देश व्यापी आम हड़ताल की घोषणा की।भारी संख्या में लोग उनकी सभा में शरीक हुए।ब्रिटिश शासन घबरा गया और उसने गांधी जी को गिरफ्तार कर लिया।गांधी जी के गिरफ्तार किए जाते ही दिल्ली और दूसरे शहरों में उपद्रव शुरू हो गए।सभा व जुलूस पर पाबंदी लगा दी गई।लेकिन इससे लोगों के गुस्से और जोश में कोई फर्क नहीं पड़ा और न उन्हें यही पता चला कि गांधी फौरन छोड़ भी दिए गए।
13 अप्रैल को कई हजार स्त्री,पुरूष और बच्चे अमृत सर के जालियांवाला बाग में इकट्ठे हुए।यह चारों ओर ऊंची -ऊंची इमारतों से घिरा एक खुला मैदान था।जनरल डायर ने, जिसे इस सभा को भंग करने के लिए भेजा गया था, रास्ते की नाकेबंदी कर अपने सैनिकों को गोली चलाने का हुक्म दे दिया। गोलीबारी में सैकड़ों लोग मारे गए और हजारों घायल हुए।’
‘निहत्थी और निरीह जनता के इस कत्लेआम ने पिता जी के विचारों में आमूल परिवत्र्तन कर दिया।वह गांधी जी के प्रबल प्रशंसक और जवाहर के मत के अनुकूल हो गए।उनका विचार परिवत्र्तन इतने नाटकीय ढंग से हुआ कि वह अच्छी चलती वकालत को लात मार कर जी जान से राजनीति में कूद पड़े।घटना क्रम ने हमारे परिवार के जीवन प्रवाह ही बदल दिया।कहां तो हमारे खाने के टेबुलों पर बढि़या किस्म के देशी-विदेशी खानों के दौर चलते थे और कहां अब बहुत ही सादगीपूर्ण भारतीय भोजन थालियों में परोसा जाने लगा। चार – छह कटोरियों में सालन, दाल ,एक दो सब्जियां,दही,अचार और चटनी के साथ चपातियां या पराठे,चावल और अंत में एक मिठाई बस यही भोजन था।’
‘अब न वह गपशप होती और न ही हंसी मजाक।वकालत छोड़ देने से पिता जी की भारी आय भी बंद हो गई।नौकरों की तादाद एकदम घटा दी गई।बिल्लौरी कांंच और चीनी मिट्टी के बढि़या बरतन,अस्तबल के उम्दा घोड़े और कुत्ते तथा तरह- तरह की उत्तम शराबें आदि सभी विलासिता सामग्री बेच दी गईं।अम्मा और कमला के पास बहुत से कीमती गहने थे-अंगुठियां,बालियां और कर्णफूल,हार,कंगन,कांटे और ब्रूच,सभी सोने और हीरे मोती,माणिक पन्ना जड़े हुए।अपने लिए मामूली गहने रखकर अम्मा और कमला बाकी सब बेचने के लिए राजी हो गर्इं।पिता जी ने अपना मकान कांग्रेस को भेंट कर दिया।वह स्वराज्य भवन कहलाया।हमलोगों के लिए बना नया और छोटा मकान आनंद भवन कहलाया।शुरू में तो मुझे हाथ से कती बुनी मोटी खादी पहनना जरा भी नहीं सुहाता था और मैं नाक भौं सिकोड़ती थी।मगर धीरे -धीरे अभ्यस्त हो गई।’
Ashok Kumar Pandey2 hrs · जवाहरलाल नेहरू की यह दूसरी कश्मीर यात्रा थी।
पहली बार वह अपनी बीमार पत्नी कमला नेहरू के स्वास्थ्यलाभ के लिए गए थे तो बस गुलमर्ग के आसपास घूमकर लौट आये थे। यह यात्रा महत्त्वपूर्ण थी। लाहौर में संयोग से शेख़ अब्दुल्ला से हुई रेलवे स्टेशन पर मुलाक़ात के बाद शेख़ उनके साथ ही ट्रेन में चल पड़े थे और दोनों की दोस्ती ने मुस्लिम कॉन्फ्रेंस को नेशनल कॉन्फ्रेंस में तब्दील कर दिया था। इस बार उन्हीं के आमंत्रण पर गए थे।
कश्मीर का पाकिस्तानपरस्त धड़ा इस क़दर नाराज़ था नेहरू से कि जब उनका काफ़िला नौका जुलूस में निकला तो कुछ मर्दों और औरतों ने उनकी तरफ़ पीठ कर फिरन कमर तक उठा ली। लेकिन कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस के हज़ारो कार्यकर्ताओं ने उनका शानदार स्वागत किया था। शेख़ ने उन्हें “अल ज़िनाब” कहा तो कट्टरपंथी और नाराज़ हो गए – यह टर्म अक्सर पीर-मुर्शिदों के लिए इस्तेमाल होता है कश्मीर में।
इसी यात्रा के दौरान कश्मीरी पंडितों ने उनके लिए अलग से एक सभा आयोजित की। कश्यप बंधु और जियालाल किलाम जैसे नेशनल कॉन्फ्रेंस से जुड़े पंडितों ने इसका आयोजन किया। उनके अपने समाज का एक शख़्स इस समय इन ऊंचाइयों तक पहुँचा था तो मंच से स्वागत करते हुए किलाम साहब ने कश्मीरी पंडितों के गौरवपूर्ण इतिहास पर विस्तार से बोलना शुरू किया। नेहरू की भ्रूकुटि तनी हुई थी। मंच पर आए तो उस गौरवगान में शामिल होने की जगह नसीहतें दीं – इतिहास में डूबे रहने वाली आत्ममुग्ध क़ौम नष्ट हो जाती है। बेहतर हो कि सभी कश्मीरियों के उत्थान के लिये मिलजुलकर काम करें आपलोग और महाराजा तथा अंग्रेज़ों से मुक्ति की लड़ाई लड़ें।
नेहरू उसी क्षण ग़ैर हो गए उनके लिए।
लेकिन कश्मीर तो कभी ग़ैर नहीं हुआ नेहरू के लिए। कश्मीर यानी कश्मीरी जनता। पंडित मुसलमान सिख सब। पटेल तो तैयार थे हैदराबाद की क़ीमत पर समझौता करने को। उनके राजनीतिक सचिव रहे वी शंकर ने लिखा है कि पटेल ने कहा था कि अगर महाराजा पाकिस्तान में मिलना चाहें तो हमें कोई समस्या नहीं होगी। पटेल की सबसे महत्त्वपूर्ण जीवनी लिखने वाले राजमोहन गाँधी ने लिखा है कि 13 सितम्बर 1947 से पहले पटेल की कश्मीर को लेकर कोई स्पष्ट राय नहीं थी। माउंटबेटन का मानना था कि अगर जिन्ना ने शाह (हैदराबाद) और प्यादे (जूनागढ़) को छोड़ना मंज़ूर किया होता तो शायद पटेल बेगम (कश्मीर) को छोड़ सकते थे। लेकिन क़बीलाई आक्रमण ने सब बदल दिया और पटेल ने सहायता माँगने आये कश्मीर के प्रधानमंत्री महाजन से कहा – तुम पाकिस्तान नहीं जाओगे महाजन।
लेकिन नेहरू के लिए कश्मीर केवल ज़मीन का टुकड़ा या मातृभूमि नहीं थी पुरखों की। वह प्रतीक था उस धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र का जिसका सपना उन्होंने अपने राजनीतिक गुरु गांधी के साथ देखा था। गाँधी कश्मीर के भारत मे रहने को लेकर बहुत ज़्यादा उत्साहित थे। एक हिन्दू बहुल देश मे ख़ुशहाल मुस्लिम बहुल राज्य!
लिखने को तो कितना कुछ है। एक पूरी किताब का वादा है। लेकिन आज बस इतना कि हम नेहरू-गाँधी-पटेल सबको ग़लत और जिन्ना-मुखर्जी को सही साबित करते जाते हैं जब धर्मनिरपेक्षता को मज़ाक बना देते हैं, जब धार्मिक उन्माद से भरते चले जाते हैं और जब कश्मीर में खीर और चीर की बाइनरी बनाते चले जाते हैं। हम भारत की उस अवधारणा को नष्ट करते चले जाते हैं जो एक लंबे मुक्तिसंग्राम में विकसित हुई थी।
उफ इतिहास…फ्रेडरिक हेगेल ने सही कहा था कि तुम्हारा सबसे बड़ा सबक यही है कि हम तुमसे कोई सबक नहीं सीखते।
#JawaharLalNehru
Kanak Tiwari17 hrs · तुम नेहरू अब तक उदास हो
14 नवम्बर 1889 अतीत की सतरों पर नेहरू के शिशु प्रेम की वजह से पहला बाल दिवस है। 1964 में 27 मई को मौत के बाद जवाहरलाल का यश इतिहास की थाती है। उनका अनोखापन ताजा भारत में बेमिसाल है। नेहरू में दोष भी ढूंढ़े जा सकते हैं। मौजूदा हुकूमत की विचारधारा सब पापों की गठरी उनके सिर लादकर उसे इतिहास की गंदगी ढोती गाड़ियों में बिठाकर गुमनामी के रेवड़ों में धकेल देना चाहती है। नेहरू यादों और विस्मृति के जंगलों के अंधेरे में जुगनू की तरह दमकते रहते है। अकेले स्वतंत्रता सैनिक हैं जो दक्षिणपंथी हमले का शिकार हैं। भारतीय जीवन में उनकी जगह सुरक्षित है। चरित हनन के पुनर्लेखन को भी प्रामाणिक समझते तत्व नेहरू से मुठभेड़ किए पड़े हैं।
आजादी की जद्दोजहद में तिलक, गांधी और नेहरू उत्तरोत्तर पड़ाव हैं। दक्षिणपंथ कुछ कहे, सरदार पटेल, सुभाष बोस, मदनमोहन मालवीय सहित अन्य नेताओं की सहवर्ती भूमिका ही है। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के बाद नेहरू ने गांधी की समझ का सम्मान करते उनकी आदर्शवादिता को अव्यावहारिकता कहते ठुकराया। गुरु को कठोर पत्र लिखे। उससे बच सकते थे। उन्होंने गांधी की मुखालफत करते भगतसिंह के पक्ष में करीब आधी कांग्रेस को खड़ा कर दिया। सुभाष बोस के साथ भगतसिंह के मुकदमे की पैरवी की। देश की बागडोर संभाली। उन पर सरदार पटेल से संयुक्त होकर भारत विभाजन का दोष थोपा जाता है। योजना आयोग, भाखरा नांगल, आणविक शक्ति आयोग, भाषावार प्रांत, सार्वजनिक उपक्रम, संसदीय तमीज और संविधान की इबारतें नायक की तरह रचीं। कश्मीर को लेकर उनमें उलझाव भी दिखा। पंचशील के बावजूद चीन के साथ दोस्ती में उन्होंने बहुत बड़ा धोखा खाया। कीमत देश की धरती को चुकानी पड़ी। वे लोकतंत्र के रहनुमा थे। अपना व्यक्तित्व उन्होंने थोपने की कोशिश नहीं की। पराजित मासूमियत भी मुस्कराती रही।
कांग्रेसाध्यक्ष बेटी इंदिरा गांधी ने पिता को खारिज किया। जब केरल की सरकार का बर्खास्तगी का विवाद आया। नेहरू डाॅक्टर राजेन्द्र प्रसाद को दुबारा राष्ट्रपति नहीं बनाना बल्कि उपराष्ट्रपति डाॅक्टर राधाकृष्णन को प्रोन्नत करना चाहते थे। कांग्रेस पार्टी ने बात नहीं मानी। नेहरू अदब से झुक गए। दिल्ली महानगरपालिका की महती जनसभा में संचालक ने यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति टीटो को पहला पुष्पगुच्छ देने के लिए नेहरू को आमंत्रित किया। जवाहरलाल ने चेहरा लाल पीला करते भरी सभा में कहा। दिल्ली के नागरिकों की ओर से पहला पुष्पगुच्छ सौंपने का अधिकार महापौर अरुणा आसफ अली को है। यह उत्तराधिकारी संस्कारशीलता आज महापौरों को उपलब्ध नहीं है। उन्हें मंत्री, सचिव और आयुक्तों के सामने नाक ऊंची रखने से मना किया जाता है।
तपेदिक से तपती बीवी को स्विटजरलैंड के अस्पताल में छोड़कर जेलों में अपनी जवानी सड़ा दी। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान खंदकों में बैठकर उन्होंने हेरल्ड लास्की के फेबियन समाजवाद के पाठ पढ़े। बेटी को पिता के पत्र के नाम से चिट्ठियों की श्रंखला लिखी। उस शिक्षा की इतनी गहरी ताब कि बेटी बिना किसी मदद के सबसे ताकतवर प्रधानमंत्री बनी और शहीदों की मौत पाई। नेहरू खानदान पर परिवारवाद का आरोप लगाने वाले कहें कि जवाहरलाल ने उत्तराधिकारी जयप्रकाश में ढूंढ़ा था इंदिरा में नहीं। वे तो अटलबिहारी वाजपेयी को भी कांग्रेस में लाने लाने को थे। मुख्यमंत्री रविशंकर शुक्ल के दबाव में भिलाई इस्पात संयंत्र लाकर इस प्रदेश को नया औद्योगिक तीर्थ दिया। उनकी किताबों ’विश्व इतिहास की झलक’, ’भारत की खोज’ और ’आत्मकथा’ की राॅयल्टी से नेहरू परिवार का खर्च वर्षो चलता रहा। आज भी संसार में बहुत बिकने वाली वे किताबें चाव से पढ़ी जाती हैं। अपने ही खिलाफ लेख तक छद्म नाम से लिखा कि जवाहरलाल तानाशाह हैं।
नेहरू में कवि,दार्शनिक और इतिहास बोध था। उनकी दृष्टि में नदियां हवाएं और तरंगें बनकर बहती हैं। उनकी गंगा पानी का एकत्र नहीं है जिसकी सफाई के लिए मंत्रालय कुलांचे भरे जा रहे हैं। नेहरू की गंगा समय की बहती नदी है। भारत के सुदूर अतीत से लेकर भविष्य के महासागर तक संस्कारों का सैलाब लिए अनंतकाल तक बहती रहेगी। वसीयत के गंगा चित्रण से बेहतर वसीयत लेखन संसार में नहीं है। उनकी श्रद्वांजलि में संसद में असाधारण बौद्धिक सांसद हीरेन मुखर्जी ने कहा था कि मैं ऐसी वसीयत लिखने वाले लेखक की हर गलती माफ कर सकता हूं। यहां तक कि उनकी खराब सरकार को भी। नेहरू ने प्रधानमंत्री नहीं साहित्य अकादमी के अध्यक्ष की हैसियत से सोवियत रूस के सर्वोच्च नेता खु्रुष्चेव को लिखा था कि वे डाॅक्टर जिवागो उपन्यास के लेखक बोरिस पास्तरनाक को रूसी समाज की कथित बुराइयों को उजागर करने के आरोप में अनावश्यक सजा नहीं दें। आॅल्डस हक्सले जैसे अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के बौद्धिक ने लिखा है कि जवाहरलाल का व्यक्तित्व गुलाब की पंखुड़ियों जैसा है। शुरू में लगता था कि चट्टानी राजनीति में गुलाब की ये पंखुड़ियां कुम्हला जाएंगी। लेकिन नहीं नहीं मैं गलत था। गुलाब की पंखुड़ियों ने तो पैर जमाने शुरु कर दिए हैं। नेहरू का स्पर्श पाकर राजनीति सभ्य हो गई है। गुरुदेव टैगोर ने उन्हें भारत का ऋतुराज कहा था। विनोबा के लिए अस्थिर दौर में सबसे बड़े स्थितप्रज्ञ थे।
निंदक शेख अब्दुल्ला को नेहरू का अवैध भाई बताते हैं। उनके ब्राह्मण पूर्वजों में मुसलमानों का रक्त अफवाहों के इंजेक्शन डालते रहते हैं। एडविना माउंटबेटन से रागात्मक संबंधों में मांसलता की वीभत्सता की अफवाहों का तंतु बना लिया जाता है। उन्हें काॅमनवेल्थ कायम रखते हुए ऐसे समझौतों के लिए दोषी करार दिया जाता है जिनका किसी को इल्म ही नहीं है। सफेद झूठ सर्वोच्च राजनीतिक स्थिति में हैं कि नेहरू सरदार पटेल की अंत्येष्टि में नहीं गए थे। कांग्रेसी कुनबे से केवल जवाहरलाल हैं जिन पर हमले जारी हैं। निखालिस हिन्दू दिखाई पड़ते गांधी, मदनमोहन मालवीय, पुरुषोत्तमदास टंडन, सरदार पटेल, लालबहादुर शास्त्री, राजगोपालाचारी वगैरह की तस्वीरें कांग्रेसियों से ज्यादा संघ परिवार खरीद रहा है। नेहरू के सियासी और खानदानी वंशज पूरी तौर पर गाफिल हैं। जवाहरलाल से बेरुख भी हो जाते हैं। उनके लिए 14 नवंबर बौद्धिक भूकंप की तरह होना था। पुरानी वर्जनाओं को नेहरू के ज्ञानार्जन के कारण दाखिल दफ्तर कर सकता था। कांग्रेस इस आधारण बौद्धिक से घबरा या उकताकर मिडिलफेल जीहुजूरियों के संकुल को ज्ञानकोष बनाए बैठी है। ठूंठ से कोंपल उगाने का जतन हो रहा है। कांगरेस महान क्रांतिकारी भगतसिंह की इबारत को तो पढे़ । उसने कहा था कि मैं देश के भविष्य के लिए गांधी, लाला लाजपत राय और सुभाष बोस वगैरह सब को खारिज करता हूं। केवल जवाहरलाल वैज्ञानिक मानववाद होने के कारण वे देश का सही नेतृत्व कर सकते हैं। नौजवानों को चाहिए वे नेहरू के पीछे चलकर देश की तकदीर गढ़ें। नेहरू चले गए। भगतसिंह भी। उस वक्त के नौजवान भी। वर्तमान के ऐसे करम हैं कि नेहरू अब भी उदास हैं।
Satyendra PS
11 hrs · जवाहरलाल नेहरू के बारे में Dilip C Mandal जी की एक लघु टिप्पणी पढ़ी, जिसमें उन्होंने भारत मे नवरत्न कम्पनियों, शोध संस्थानों, बांधों, विश्वविद्यालयों के संजाल बिछाने के लिए नेहरू की प्रशंसा के साथ ब्राह्मणवादी प्रतीकों को स्थापित करने के लिए उनकी आलोचना की थी।
इस संदर्भ में एक दो बातें मेरे दिमाग मे हमेशा घुमड़ती रहती हैं। एक तो नेहरू गांधी के कांग्रेस को लेकर है, जिस पर अब तक कांग्रेसी कमोबेश चल रहे है।
कांग्रेस का मकसद कभी खूनी क्रांति का नहीं, वक्त के साथ बदलाव का दिखता है। इस मायने में मैं गांधी या नेहरू को जातिवादी नहीं मानता। उनके मुख्य मकसद अलग थे,जिसे वह जाति या आंतरिक शोषण में नही फंसाना चाहते थे।
गांधी ने अपना उत्तराधिकार एक तरह से नेहरू को चुना था जो उस दौर के प्रगतिशील कहे जा सकते थे। उनका निजी जीवन किसी धर्म या जाति से प्रभावित नहीं दिखता। यह अलग बात है कि धर्म जाती को वह सीधा निशाना नहीं बनाते थे लेकिन राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद द्वारा काशी के 101 पंडितों के पांव पखारने जैसे कृत्य के वह प्रबल विरोधी थे।
जहाँ तक आरक्षण का सवाल है, संविधान सभा में नेहरू अपने बयानों में ओबीसी आरक्षण के प्रबल पक्षधर नजर आते हैं। यह अलग बात है कि उस दौर का अपर कास्ट तबका आर्थिक आधार पर आरक्षण के पक्ष में था और नेहरू की इच्छा थी कि इसका सर्वमान्य हल निकाला जाए।
जब पहला पिछड़ा वर्ग आयोग नियुक्त हुआ तो उसमें जितने ब्राह्मण सदस्य थे, आर्थिक आधार पर ओबीसी कोटे या आरक्षण न देने के पक्ष में थे जबकि बैरिस्टर एसडी चौरसिया जैसे जितने ओबीसी नेता थे, उन्होंने जबरदस्त दलील दी कि भारत मे शोषण का आधार जाति है, न कि आर्थिक पिछड़ापन। ऐसे में जाति के आधार पर ही पिछड़े वर्ग को चिह्नित किया जा सकता है।ऐसे में नेहरू ने बीच का रास्ता निकाला था कि इसे कुछ साल तक और लटकाए रखा जाए,मामले को राज्यो पर छोड़ा जाए और समाज को परिपक्व होने दिया जाए! तमिलनाडु के उदाहरण भी सामने था कि समय के साथ लोगों ने वंचितों को हक़ देने की बात स्वीकार कर ली थी।
सम्भवतः नेहरू इस स्थिति में नहीं थे कि वह आरक्षण लागू कर देशव्यापी दंगे सम्भाल सकें। 1991 में देश की स्वतंत्रता के 40 साल बाद जब आरक्षण लागू हुआ तो आग लग गई। अपर कॉस्ट सड़को पर उतरकर दंगे कर रहा था। जबकि 91 आते आते तमाम राज्यों में ओबीसी आरक्षण लागू हो चुका था, तमाम राज्यों में ओबीसी मुख्यमंत्री होने लगे थे। ऐसे में यह कल्पना करके भयावह लगता है कि 1955-60 में अगर ओबीसी आरक्षण लागू हुआ होता तो अपर कॉस्ट किस तरह से देश को जलाता और ओबीसी तबके पर कहर बनकर टूटता,क्योंकि उस समय तो प्रशासन से लेकर पुलिस और राजनीति में ओबीसी थे ही नहीं।
एक बात और है। कांग्रेस्स का मध्य प्रदेश का घोषणा पत्र देखें। उसमें माँ नर्मदा हैं। परिक्रमा पथ है, गौशाला है। यह सब अपर कॉस्ट की जरूरतें नहीं हैं न उनकी प्राथमिकता में हैं। भले ही देखने मे यह चीजें ब्राह्मणवादी लग रही हों। मूल रूप से यह ओबीसी को ही लुभाने के लिए है।
ऐसे में नेहरू द्वारा ओबीसी रिजर्वेशन जबरी लागू कराने पर पहले तो ओबीसी ही भड़क उठते। आधे से ज्यादा ओबीसी को आज भी लगता है कि आरक्षण की वजह से वो नीच जाति हो गए वरना वो पैदा तो ठाकुरै हुए थे।
अभी कोर्ट का फैसला आया है 84 के दंगों पर।मुझे यह पढ़कर लगा कि 85 या 86 में कोर्ट ने अगर यही फैसला दिया होता तो दंगा और भड़क जाता। लोग कहते कि कोर्ट भी मीयां, ईसाई हो गई! शायद कोर्ट पर हमला हो जाता। लेकित वक्त के साथ अब लोग इस फैसले को स्वीकार कर रहे हैं और मैं मॉनकर चल रहा हूँ कि भावनाओं में बहकर सिखों की हत्या करने वाले जिन लोगों ने इतने साल मुकदमा लड़ा है, वो भी पर्याप्त रूप से बर्बाद हुए होंगे। वह भी एक दीर्घकालिक टॉर्चर है।
मतलब यह कि भारत में खूनी क्रांति की संभावना नहीं है। कभी हुई ही नही। वक्त के साथ बदलाव हो रहे हैं। यह सकारात्मक हो, वही बेहतर है। हम ऐसा पीएम न चुन लें, जो इतना घृणित हो कि उसकी आलोचना करना भी अपनी तौहीन हो। गांधी नेहरू की आलोचना करने पर फीलिंग आती है कि कम से कम स्तरीय व्यक्तियों की आलोचना कर रहे हैं।
नेहरू एडविना संबंध- एक महान प्रेम प्रकरण या चलते किस्म की चीज अनूप शुक्ल
सोशल मीडिया पर यदा-कदा भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की बुराई करने वाले उनकी नीतियों और निर्णयों के अलावा उनके व्यक्तिगत जीवन से जुड़ी बातों की चर्चा करके उनकी आलोचना करते हैं। ऐसा ही एक चर्चित विषय है नेहरू-एडविना प्रेम संबंध। नेहरू-एडविना के संबंधों को लेकर अनेक किताबें लिखी गयीं हैं। परसाई जी ने एक पाठक के पूछने पर इस संबंध में अपने विचार व्यक्त किये।
परसाई जी नेहरू जी के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित थे। उनकी वैज्ञानिक समझ और दूरदृष्टि के प्रशंसक थे। नेहरू जी उनके रोमानी हीरो सरीखे थे। लेकिन व्यंग्यकार परसाई नेहरू की आलोचना और उनकी नीतियों की खिल्लियां उड़ाने से चूकते नहीं थे। परसाई जी का विश्वास था कि बिना व्यवस्था में बदलाव लाये, भ्रष्टाचार के मौके कम किये देश से भ्रष्टाचार कम नहीं हो सकता। नेहरूजी ने एक सभा में कहा था कि मुनाफाखोरों को बिजली के खम्भों पर लटका दिया जायेगा। बिना किसी समुचित योजना के इस तरह की घोषणा करने की प्रवृत्ति की खिल्ली उड़ाते परसाई जी ने व्यंग्य लेख लिखा था- उखड़े खम्भे। नेहरू जी द्वारा स्वयं की सरकार द्वारा ‘भारत रत्न’ स्वीकार करने की घटना का भी परसाई जी ने ( सम्मानित होने की इच्छा उद्दात मनुष्य की आखिरी कमजोरी होती है) विरोध किया था।
नेहरू-एडविना संबंध में परसाई जी का मानना था कि इसमें एतिहासिक परिस्थितियों ने एक साधारण स्त्री को एक इतिहास-पुरुष के संपर्क में ला दिया। अपने उत्तर में परसाईजी ने अपनी राय व्यक्त की थी की थी कि सहमति से अगर किसी स्त्री और पुरुष के शारीरिक संबंध भी हों तो मैं इसे बुरा नहीं मानता एक पाठक ने उनके इस वक्तव्य पर सवाल उठाते हुये एतराज किया कि इससे तो समाज में मुक्त यौन संबंध का चलन हो जायेगा। परसाईजी ने अपनी बात साफ़ करते हुये पाठक को जबाब दिया मैं मुक्त यौन सम्बन्ध की वकालत नहीं कर रहा हूं।।
“पूछो परसाई से” पढ़ते हुये लगता है कि परसाईजी की देश-समाज से जुड़े मुद्दे पर क्या राय थी। बहरहाल, आप पढिये ये दोनों प्रश्न-उत्तर।
प्रश्न- क्या नेहरू-एडविना का प्रेम विश्व इतिहास में एक महान प्रेम प्रकरण था या चलते किस्म की चीज? (पोटियाकला से कु. शशि साव)
उत्तर-एडविना भारत के अन्तिम वाइसरॉय लॉर्ड लुई माउंट बेटन की पत्नी थी। लार्ड माउंट बेटन से पंडित नेहरू के पहले से अच्छे सम्बन्ध थे। कृष्णमेनन भी माउंट बेटन के दोस्त थे और आदत के मुताबिक साफ़ बात कहते थे। उन्होंने एक दिन दोपहर के भोजन करते-करते माउंट बेटन से कह दिया था- तुम मुस्लिम लीग का उपयोग भारत विभाजन के लिये कर रहे हो और भारत में रहने वाले करोड़ों मुसलमानों के साथ धोखा कर रहे हो।
बहरहाल, एडविना माउंट बेटन पंडित नेहरू की मित्र थीं। सहमति से अगर किसी स्त्री और पुरुष के शारीरिक संबंध भी हों तो मैं इसे बुरा नहीं मानता। प्रेम अत्यन्त पवित्र स्वाभाविक मानवीय भावना है। मगर यह सम्बन्ध ऐतिहासिक कैसे हो जायेगा? ऐतिहासिक परिवर्तन कैसे हो जायेगा? ऐतिहासिक परिवर्तन और प्रक्रिया में जवाहरलाल नेहरू की राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय भूमिका थी और महत्व था। पूंजीवादी और समाजवादी शक्तियों का संघर्ष अवश्यम्भावी है यह उन्होंने समझ लिया था। वे अमेरिकी साम्राज्यवाद के आगे के रोल की कल्पना कर चुके थे। इसीलिये उन्होंने ‘शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व’, ‘पंचशील’ और ‘गुट’, संलग्नता की नीतियां प्रतिपादित कीं। एडविना उस वाइसरॉय की पत्नी थीं जिसने ब्रिटिश संसद के फ़ैसले के अनुसार भारतीयों को सत्ता सौंपी और देश का विभाजन हुआ।
पंडित नेहरू अत्यन्त आकर्षक व्यक्ति थे। यह आकर्षण केवल सुन्दर चेहरे के कारण नहीं था। उनके कार्यों , बुद्धि की प्रखरता, साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष, कीर्ति और विश्व इतिहास में उनकी भूमिका के कारण भी था। यह समझना गलत है कि स्त्री केवल सुन्दर चेहरे पर मोहित होती है। स्त्री दूसरे कारणों से भी किसी पुरुष पर मोहित होती है। कुरूप पुरुषों पर भी स्त्रियां मोहित हैं। असंख्य स्त्रियों देश और दुनिया में थीं जो नेहरू पर मोहित थीं। इतिहास की सबसे महान और अहंकारी अभिनेत्री ग्रेटा गार्बों जवाहरलाल को देखने के लिये भीड़ में खड़ी होती थीं। इतना मोहक व्यक्तित्व था नेहरू का।
नेहरू भावुक थे, रूमानी भी थे। उनकी कई स्त्रियों से मित्रता थी- मृदुला साराभाई, राजकुमारी अमृत कौर, पूर्णिमा बेनर्जी, पद्मजा नायडू, आदि से उनकी मित्रता थी। वे छिपाते नहीं थे। एक बार संसद में उन्होंने कह दिया था- हां मृदुला सारा भाई कुछ साल मेरी मित्र थीं।
एडविना और नेहरू के सम्बन्धों के बारे में बहुत अफ़वाहें हैं और बहुत लिखा गया है। अब जब न नेहरू हैं, न लॉर्ड माउंट बेटन, न एडविना तब तो रिसर्च होकर और खुलकर किताबें लिखीं जा रहीं हैं। ताजा किताब एक अंग्रेज ने लिखी है जिसमें उसने कहा है कि एडविना शुरु से चंचल थीं। यहां तक लिखा है कि शादी के बाद दस साल तक ‘शी वाज गोइंग फ़्रॉम बेड टु बेड’। इस बिस्तर से उस बिस्तर तक जाती रहीं। एक लेखक ने लिखा है कि माउंट बेटन इस बात पर गर्व करते थे कि उनकी पत्नी पुरुषों को इस तरह मोहित करती हैं। महान नीग्रो गायक पाल राब्सन से भी एडविना के सम्बन्ध थे। जब एडविना और नेहरू में मित्रता हुई तब एडविना की उम्र 45 साल थी और नेहरू की 54 साल। यह उम्र किशोरों जैसे प्रेम की नहीं होती। इन उम्र में विवेक और समझदारी से प्रणय सम्बन्ध होते हैं। कुछ लोगों का यह ख्याल गलत है एडविना ने नेहरू के विचारों को प्रभावित करके उनसे ब्रिटिश सरकार की बात मनवाई। नेहरू बहुत दृढ़ आदमी थे। यह जरूर है कि एडविना के साहचर्य, उसकी भावुकता तथा सद्भावना से नेहरू प्रभावित थे। यह सम्बन्ध कहां तक था। कुछ लोग कहते हैं कि शरीर के स्तर पर भी सम्बन्ध था। हो तो हर्ज क्या है? जिस क्षोभ और मानसिक तनाव में देश विभाजन के दौर में नेहरू कार्य कर रहे थे, इस कोमल भावना से उन्हें राहत मिलती थी। एतिहासिक इसमें इतना ही है कि एतिहासिक परिस्थितियों ने एक साधारण स्त्री को एक इतिहास-पुरुष के संपर्क में ला दिया।
(देशबन्धु ,18 दिसम्बर, 1983)
प्रश्न- नेहरू-एडविना प्रेम के बारे में आपने लिखा है- सुसम्मत यौन सम्पर्क के आप विरोधी नहीं हैं। आप बहुत बड़े लेखक हैं। आपके इस समर्थन को पढ़कर देश के नर-नारी सम्मति से यौन सम्पर्क करने लगें तो क्या परिणति होगी? (भिलाई से निखिलानन्द घोष)
उत्तर- आप मुझे गलत समझे, आपकी कल्पना में अतिशयोक्ति है। स्वभाव से स्त्री एक ही पुरुष की रहना चाहती है, रहती भी है क्योंकि वही सन्तान पैदा करके मनुष्य की जीवन परम्परा बढ़ाती है। एकनिष्ठ वैवाहिक संबंध की सुरक्षा उसे तथा बच्चों को चाहिये। मेरे कह देने से स्त्रियां एकदम चंचल नहीं हो उठेंगी मगर मानवीय भावना र वासना गणित से नहीं चलती। एक स्त्री और पुरुष का परस्पर आकर्षण और प्रेम है, तो उसमें अनैतिक कुछ भी नहीं है। यह प्राकृतिक है। यह आकर्षण शरीर-सम्पर्क की मांग करता है। सुविधा हो तो ऐसा सम्पर्क होता भी है। आप अपनी जानकारी के दायरे में देख लीजिये, ऐसे सम्बन्ध हैं। मेरी जानकारी में ऐसे कई सम्बन्ध हैं और ये सम्बन्ध सम्मानजनक हैं। मैं मुक्त यौन सम्बन्ध की वकालत नहीं कर रहा हूं। ऐसे सम्बन्ध बाजारू हो जायेंगे। मर्यादा समाज में जरूरी है। मैं कह रहा हूं कि स्त्री-पुरुष में परस्पर आकर्षण और प्रेम से शरीर सम्बन्ध हों, तो वे सही हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि पत्नियां पतियों को छोड़ देगीं और यौन अराजकता आ जायेगी।
बलात्कार, दबाब, डर से जो सम्बन्ध हों ये अपराध हैं। अगर कोई अफ़सर अपने मातहत स्त्री नौकरीपेशा को दबाकर उससे सम्भोग करता है तो यह बलात्कार है। यदि प्रोफ़ेसर छात्रा से यौन सम्बन्ध करके डॉक्टरेट दिलाता है, तो यह भी बलात्कार है। ये सम्बन्ध प्रेम और स्वेच्छा के नहीं होते।
Alok Shrivastav
5 hrs ·
पिछले साल इन्हीं दिनों…..
‘इंडिया टुडे’ के पूर्व पत्रकार पीयूष बबेले ने जवाहरलाल नेहरू पर शानदार किताब लिखी है। तीन महीने पहले जब वे पांडुलिपि के साथ मिले तो ऐसी स्थिति बिल्कुल नहीं थी कि इस पुस्तक को आगामी 5 जनवरी से दिल्ली में हो रहे विश्व पुस्तक मेले में प्रकाशित होने वाले संवाद के नए सेट में शामिल किया जा सके। सारा काम आखिरी चरण में था। पर नेहरू पर जिस तरह झूठ की फैक्ट्रियां खोलकर एक दल विशेष और उसके अनुचरों ने आरोप लगाए हैैं और देश की जनता को साइबर से संसद तक भ्रमित करने का यत्न किया है, उससे हमारा यह दायित्व बनता था कि सच को सामने लाया जाए। यह नेहरू के भारत को दिए गए ऐतिहासिक और विराट अवदान के प्रति सम्मान और कृतज्ञता का तकाजा तो था ही, यह सत्य और देशप्रेम का भी तकाजा था कि तथ्यों, दस्तावेजों, सबूतों के साथ उस महान गाथा को देश समुचित सम्मान दे, जो आजादी के बाद आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक हर दृष्टि से पूरी तरह प्रतिकूल परिस्थितियों में इस देश में हैरतअंगेज ढंग से घटी। पीयूष ने वर्षों से अथक मेहनत की थी। हजारों दस्तावेजों को उन्होंने थाहा, पुस्तकालयों के चक्कर लगाए, किताबें खरीदीं। पूरे मन और तन्मयता से यह काम किया। पूरी तरह वस्तुनिष्ठ और तथ्यात्मक। यह पुस्तक सिर्फ एक पुस्तक नहीं है, भारत की आगामी पीढ़ी को यह एक संदेश है कि यदि अपने अतीत को झूठ से नष्ट करोगे तो तुम भविष्य के अधिकारी नहीं। यह पुस्तक राष्ट्रीयस्वयंसेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी, उसके शीर्षस्थ नेता, संसद में नेहरू के बारे में बारंबार झूठ बोलने वाले सम्मानीय प्रधानमंत्री और समस्त अनुषांगिक संगठनों के लिए एक चुनौती है कि वे इसे पढ़ें और झूठ और दुष्प्रचार का सहारा लेकर नहीं, सत्य और तथ्य की रोशनी में इसका खंडन करें। यह पुस्तक उस कांग्रेस और उन नेताओं के लिए भी एक चुनौती है कि वे जिस नेहरू का हवाई महिमामंडन करते हैं, उनका नाम लेकर अपनी राजनीति करते हैं, क्या वे उस नेहरू को, उसके मस्तिष्क को और भारत की आजादी और विकास को सुनिश्चित करने के उसके कार्यों की गहनता का कोई अनुमान भी रखते हैं।
मुझे खुशी है कि बिल्कुल अंतिम समय में लिए इस काम को संपादित कर सका और यह पुस्तक भी पुस्तक मेले में आ सकेगी। एक दायित्व को पूरा करने का अहसास है। पीयूष को बधाई और आभार।
Manish Singh
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26 जनवरी ही क्यों.. ? आपको पता है, अजी कहाँ पता है!!
मितरों, एक था लार्ड बिरकनहेड, भारत मंत्री था ब्रिटेन की सरकार में, बहुत बोलता था भकर-भकर। वैसेई जैसी हमारी सरकार के मंत्री बोलते हैं।
एक दिन हाउस ऑफ लॉर्ड्स में बहस चल रही थी। बिरकनहेड को हुनक चढ़ी, डाइस पे चढ़े, पाउच थूका, और हाथ नचाकर बोले- मियां, देखो। ये हिंदुस्तानी बड़ा होमरूल-शोमरूल करते है, अमां बड़ी बड़ी बात करते हैं। इनको आता जाता कुछ है नई। मैं तो कै रिया हूँ- अबे हिंदुस्तानियों, औकात हो, तो अपना गवर्निंग एक्ट बना के दिखाओ। अमां, चलो, चार लाइने ही लिख दो।
ये बात लग गयी मितरों। यहां, इधर.. दिल पर लगी भाइयो बहनों। दिल्ली में एक आल पार्टी कांफ्रेंस हुई। भारत की गवर्नेन्स के लिए एक बिल बनाया गया। जो लार्ड सैल्सबरी ने ब्रिटिश संसद में पेश भी किया। पास नही हुआ। फिर 1927 में साइमन कमीशन आया। इसमे एक्को मेम्बर इंडियन नही था। खूब विरोध हुआ। साइमन फिर चिढ़ा दिए, बोले इण्डियन्स को गवर्नेन्स की क्या समझ.. ।
मने अबकी बार, दिल चीर दिया यार। हमारे वीर अगर थके न होते, तो तुरत फुरत दो चार कन्स्टिट्यूशन लिख मारते। लेकिन आप जानते है, माफ़ीनामे लिखना कितना थकाऊ काम है। उनके हाथों में मेहंदी लगी थी, रेस्ट पे थे। मौका दुष्ट नेहरूओं ने उठा लिया।
कांग्रेस ने 1928 मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में कमिटी बनाई। बेटा जवाहरलाल सचिव हुए। एक आल पार्टी टीम बनी, जिसमे सुभाष चन्द्र बोस, तेज बहादुर सप्रू वगेरा 9 मेम्बर थे। इस कमेटी ने एक रिपोर्ट दी। जिसे नेहरू रिपोर्ट कहते हैं। बाद में जब बाबा साहेब ने सम्विधान लिखा, तो ये नेहरू रिपोर्ट उसकी बैक बोन थी।
भाइयो भैनोओंओं…!! नेहरू रिपोर्ट ने भारतीयों को एक कॉन्फिडेंस दियाहह। बात होमरूल की नही, पूर्ण स्वराज की होने लगीईई । इंडिया इंडिपेंडेंस लीग बनी, एक आयंगर साहब अध्यक्ष हुए, तो युवा तुर्क जवाहर और सुभाष सचिव। लाहौर में 1929 के अधिवेशन में पूर्ण स्वराज का लक्ष्य घोषित कर दिया गयाआआ। 31 दिसम्बर को नेहरू जी ने चरखे वाला तिरंगा फहरायाआआह।
मितरोंओओ। कांग्रेस पार्टी ने देश से आग्रह किया, की 26 जनवरी 1930 को पूर्ण स्वराज दिवस मनाया जाए। सविनय अवज्ञा आंदोलन की रूपरेखा बनने लगी। 12 मार्च को गाँधीजी ने दांडी मार्च शुरू किया।
जब आजादी मिली, सम्विधान बना, तो इसी दिन को लागू करने का निर्णय किया गया। स्वतंत्र तो हम 47 में हो चुके थे, 26 जनवरी 1950 को आत्माधीन हुए। स्वाधीन हुए। इसलिए ये स्वाधीनता का दिवस है।
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मितरों। दलाल मीडीया ये नही बतायेगा, कि कांग्रेस पार्टी में वंशवाद की शुरुआत यहीं से हो गयी थी। मोतीलाल नेहरू 1929 में कांग्रेस के अध्यक्ष थे। जवारलाल नेहरू 1930 में अध्यक्ष हुए। बाप ने बेटे को सत्ता( :p ) सौप दी थी। ये पता था आपको, कहां पता था??
एक बात तो और बताया नही मितरों। जब सम्विधान का ड्राफ्ट, नेहरू रिपोर्ट को बाप-बेटा, सुभाष के साथ बैठकर लिख रहे थे, हमारे नेता ने भी लिखना शुरू कर दिया था। उन्होंने हिंदुत्व नाम की किताब काआआ .. दूसरा एडिशन लिख दिया थाआआ।
ये पता था आपको??नही पता था, कहाँ पता था .. !!! तो अब आप करो तो करो क्या, बोलो तो बोलो क्या.. ??
Ashok Kumar Pandeyशाहीन बाग़ गया। फ़ोटो देखता ही रहता हूँ। सबकी फ़ोटो है बस नेहरू नहीं हैं।अम्बेडकर अब कल्ट हैं। गांधी तो हमेशा से थे। भगत सिंह भी। लेकिन नेहरू छोड़ दिए जाते हैं। वह आदमी जो कांग्रेस के भीतर अकेला लड़ा सेक्युलरिज़म के पक्ष में। दिल्ली की सड़कों पर पागलों सा फिरा क़त्ल-ए-आम रोकने। हिन्दू कोड बिल को टुकड़ों में पास कराने के लिए सबकी दुश्मनी ली। जो न होता तो हिंदुस्तान का हिस्सा न होता कश्मीर। जिसे बुरा मानना हो मान ले, न होते नेहरू तो संविधान वह न होता जो आज है। उनकी ताक़त और ज़िद थी कि वह उस रूप में बना और पास हुआ जिस रूप को नष्ट करने की कोशिश है आज।
वह आदमी संघियों का दुश्मन हो, समझ आता है। लेकिन बाक़ियों को भी उससे दिक़्क़त हो तो क्या कहें।सॉरी जवाहरलाल साहब। यह देश कृतघ्न होता जा रहा है
DS Mani Tripathi·
उसने प्रतिमाये नहीं बनवाई
संस्थानों के प्रतिमान बनाये !
उसकी आँखों के सामने एक ऐसा भारत था जहां आदमी की उम्र 32 साल थी। अन्न का संकट था। बंगाल के अकाल में ही पंद्रह लाख से ज्यादा लोग मौत का निवाला बन गए थे। टी बी ,कुष्ठ रोग , प्लेग और चेचक जैसी बीमारिया महामारी बनी हुई थी। पूरे देश में 15 मेडिकल कॉलेज थे। उसने विज्ञानं को तरजीह दी।
यह वह घड़ी थी जब देश में 26 लाख टन सीमेंट और नो लाख टन लोहा पैदा हो रहा था। बिजली 2100 मेगावाट तक सीमित थी। यह नेहरू की पहल थी। 1952 में पुणे में नेशनल वायरोलोजी इन्स्टिटूट खड़ा किया गया। कोरोना में यही जीवाणु विज्ञानं संस्थान सबसे अधिक काम आया है। टीबी एक बड़ी समस्या थी। 1948 में मद्रास में प्रयोगशाला स्थापित की गई और 1949 ,में टीका तैयार किया गया। देश की आधी आबादी मलेरिया के चपेट में थी। इसके लिए 1953 में अभियान चलाया गया । एक दशक में मलेरिया काफी हद तक काबू में आ गया।
छोटी चेचक बड़ी समस्या थी। 1951 में एक लाख 48 हजार मौते दर्ज हुई। अगले दस साल में ये मौते 12 हजार तक सीमित हो गई। भारत की 3 फीसद जनसंख्या प्लेग से प्रभावित रहती थी। 1950 तक इसे नियंत्रित कर लिया गया। 1947 में पंद्रह मेडिकल कॉलेजों में 1200 डॉक्टर तैयार हो रहे थे। 1965 में मेडिकल कॉलेजों की संख्या 81 और डॉक्टरस की तादाद दस हजार हो गई। 1956 में भारत को पहला AIMS मिल गया। यही एम्स अभी कोरोना में मुल्क का निर्देशन कर रहा है। 1958 में मौलाना आज़ाद मेडिकल कॉलेज और 1961 में गोविन्द बल्ल्भ पंत मेडिकल संस्थान खड़ा किया गया।
पंडित नेहरू उस दौर के नामवर वैज्ञानिको से मिलते और भारत में ज्ञान विज्ञानं की प्रगति में मदद मांगते। वे जेम्स जीन्स और आर्थर एडिंग्टन जैसे वैज्ञानिको के सम्पर्क में रहे। नेहरू ने सर सी वी रमन ,विक्रम साराभाई ,होमी भाभा ,सतीश धवन और अस अस भटनागर सरीखे वैज्ञानिको को साथ लिया। इसरो तभी स्थापित किया गया/ विक्रम साराभाई इसरो के पहले पहले प्रमुख बने। भारत आणविक शक्ति बने। इसकी बुनियाद नेहरू ने ही रखी। 1954 में भारत ने आणविक ऊर्जा का विभाग और रिसर्च सेंटर स्थापित कर लिया था। फिजिकल रीसर्च लैब ,कौंसिल ऑफ़ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रीसर्च ,नेशनल केमिकल लेबोरटरी ,राष्ट्रिय धातु संस्थान ,फ्यूल रिसर्च सेंटर और गिलास एंड सिरेमिक रिसर्च केंद्र जैसे संस्थान खड़े किये। आज दुनिया की महफ़िल में भारत इन्ही उपलब्धियों के सबब मुस्कराता है। अमेरिका की अम आई टी MIT का तब भी संसार में बड़ा नाम था। नेहरू 1949 में अमेरिका में MIT गए ,जानकारी ली और भारत लौटते ही IIT आइ आइ टी स्थापित करने का काम शुरू कर दिया। प्रयास रंग लाये। 1950 में खड़गपुर में भारत को पहला IIT मिल गया। आज इसमें दाखिला अच्छे भविष्य की जमानत देता है./ आइ आइ टी प्रवेश इतना अहम पहलु है कि एक शहर की अर्थव्यवस्था इसने नाम हो गई है। 1958 में मुंबई ,1959 में मद्रास और कानपुर और आखिर में 1961 में दिल्ली IIT वाले शहर हो गए।
उसने बांध बनवाये ,इस्पात के कारखाने खड़े किये और इन सबको आधुनिक भारत के तीर्थ स्थल कहा।
नेहरू ने जब संसार को हमेशा के लिए अलविदा कहा ,बलरामपुर के नौजवान सांसद वाजपेयी [29 मई 1964] संसद मुखातिब हुए / नेहरू के अवसान को वाजपेयी ने इन शब्दों में बांधा ” एक सपना था जो अधूरा रह गया ,एक गीत था जो गूंगा हो गया ,एक लौ अनंत में विलीन हो गई , एक ऐसी लो जो रात भर अँधेरे से लड़ती रही ,हमे रास्ता दिखा कर प्रभात में निर्वाण को प्राप्त हो गई। और भी बहुत कुछ कहा।
आज़ादी की लड़ाई लड़ते हुए वो 3259 दिन जेल में रहा। उसने सच में कुछ नहीं किया। लेकिन कोई पीढ़ियों की सोचता है ,कोई रूढ़ियों की।
शत शत नमन/
Rama Shankar Singh
होटल_अशोका_की_कहानी
सब कुछ बेच_दो_अभियान
कुछ नया बनाया नहीं , खड़ा नहीं किया सिर्फ़ नाम बदले हैं और और दूसरों के बनाये का उद्घाटन इवेंट किया है
आजादी के कुल आठ साल और कुल पॉंच साल का गणराज्यीय भारत ।
कल्पना कीजिये तो , 1955 में यूनेस्को का 8वां शिखर सम्मेलन था, पं0 नेहरू को सुनने के लिये पेरिस में बड़ी गहमागहमी थी, दुनिया के ताकतवर देशों में नेहरू को एक तिलस्माई नेता के रूप में देखा जाता था, हलांकि सम्पन्न देशों की कुटिलता भारत के संघीय लोकतंत्र को लेकर आशंकित रहती थी , उनकी नजरों में भारत बहुत लम्बे समय तक संघीय ढांचे को बरकरार नहीं रख सकने वाला था। नेहरू का भाषण हुआ तो दूसरे दिन के फ्रान्स के बड़े अखबार ने लिखा Chef intellectuel du pays pillé des Britanniques “अंग्रेजों के लूटे हुए देश का बौद्धिक सम्पन्न नेता ”
नेहरू ने यूनेस्को का 9वां सम्मेलन भारत में करने की पेशकश की, दो दिन तक निर्णय न हुआ फिर हामी भरदी गयी । रूस के मित्रों ने नेहरू को बाद में बताया कि ये हामी भारत की साख गिराने को भरी गयी है , भारत में यूनेस्को जैसी संस्था के आयोजन के लिये मानक के अनुरूप कुछ भी नहीं है, कैसे एक साल में कर लोगे, न विश्व के प्रतिनिधियों के रहने खाने लायक 5 सितारा सुविधा न पंचसितारा कान्फ्रेस हाल, देश में मौजूद विरोधियों ने इसे नेहरू की लोजिस्टिकल भूल घोषित कर दिया ।
नेहरू सुनते सब की थे, वही हुआ भी, नेहरू ने हर खरी खोटी , भली बुरी सब सुनी , नेहरू ने देश के सबसे बेहतरीन तत्कालीन दो वास्तुकारों ई. बी. डॉक्टर और आर ए गहलोते को अपने पास बुलाया और मन का डिजाइन साझा कर दिया , वास्तुकारों ने कहा आपके डिजाइन को साकार करने के लिये कम से कम 20 एकड़ जमीन और कम से कम 2.5 करोड रूपये की दरकार है जो वर्तमान हालात में दूर की कौड़ी नजर आते हैं ।
नेहरू ने उनकी बात सुनी और एक महीने बाद काम शुरू करने को कह दिया, अगले दिन नेहरू ने सुबह जम्मू कश्मीर के राजकुमार रीजेन्ट डा0 कर्ण सिंह को अपने पास बुलाया और सपना साझा किया, राजकुमार ने 9 दिन में सारी फार्मेलिटी निपटा के अपनी 25 एकड़ पार्कलैंड भारत सरकार को दान कर दी, फिर नेहरू ने मित्र रघुनन्दन सरन जो कांग्रेस के आजाद हिन्द फौज सैनिक सहायता कोष के ट्स्टी थे को बुलाया और बात साझा की । इसी ट्रस्ट के मित्रों ने यथा संभव भारत सरकार को नकद रूपये दान किये, और फिर 10 महीने 28 दिन के दिन रात मिला कर 1956 में खडा हो गया कुल 3 करोड की लागत से भारत का सार्वजनिक क्षेत्र का पहला पंच सितारा होटल “द अशोक ” !! चाणक्यपुरी दिल्ली !!
दिल्ली मे मैंनें पहली बार अशोक होटल देखा था १९७० -७१ में जब किसी भारतीय उद्योगपति ने जलपान की दावत में हमारे नेता श्री राजनारायण को भी बुलाया था , वे मुझे भी साथ ले गये लेकिन जिस बैंक्उये हॉल में दावत थी मैं उससे कुछ मिनट में ही बाहर आकर पूरा होटल देखने निकल गया था। किसी सीनियर बुजुर्ग स्टॉफ ने मेरी जिज्ञासा देखकर कई बातें बताई, एक यह थी कि नेहरू अक्सर ‘ दि अशोक’ के निर्माण के समय अपने निकटस्थ आवास तीनमूर्ती भवन से घूमते हुये इंजीनियर्स से बात करने और प्रगति देखने चले आया करते थे। राजस्थान के लाल व भूरे बालू पत्थरों का इस्तेमाल और छत्रियाॉं कंगूरे आदि के पारंपरिक भारतीय वास्तुकला प्रतीकों के साथ आधुनिक ढाँचा व सुविधायें नेहरू की दृष्टि की परिचायक है।
5 नवम्बर 1956 को जब नेहरू ने होटल अशोक के कान्फ्रेन्स हाल में UNESCO की दुनिया के अतिथियों का स्वागत किया तो अतिथियों की उंगलियां तो सबसे बडे पिलर लैस हाल में दांतों तले ही थीं किन्तु चैलेन्ज की मंशा से न्योता देने वाले कुटिल देशों के प्रतिनिधियों की आंखें फटी की फटी थीं क्योंकि आंखों का खून शर्म बन कर टपकने को उमड रहा था किन्तु सामने नेहरू को देख कर शर्म को पीने के सिवा कोई चारा न था ।
इस होटल में विकसित देशों के इतर और भी कुछ था जो उनकी कल्पना के भी परे था , वो था बेहद अनुशासित डेकोरम और भारत के ग्रामीण अंचलों के स्वादिष्ट पौष्टक पारंपरिक व्यन्जन । जो उन्होंने अपने जीवन में पहली बार खाये थे ।
भारत की जमीन को एक सम्प्रभु देश बनाने वाले निस्वार्थ दानियों , योजनाकरों और निस्वार्थ सेवकों की ये अनमोल गौरवशाली विरासत आज वो सरकार बेचने को टेंडर निकाल रही है जिसकी न तो खुद ना ही उसकी विचारधारा का इसे बनाने में कोई योगदान है ।पहले भी अटलबिहारी सरकार ने भारत सरकार के कई उपक्रमों को कौड़ियों के दाम बेच दिया था। मेरे एक दिंवगत मित्र ने तब आगरा का अशोक होटल ‘ दि आगरा अशोक ‘ ख़रीदा था और सब अंदरूनी भ्रष्ट्राचार व गंदगियों की जानकारी है मुझे ।
अशोक होटल अब एक धरोहर है और ऐसी संपत्ति है जिसे ठीक से चलाकर मुनाफ़े में लाया जा सकता है। पर देश की हर धरोहर और मुनाफ़ादार उपक्रम को बेच कर भी सरकार को अपने ग़ैर ज़रूरी खर्च चलाने है। सेंट्रल विस्टा पर २०००० करोड़ रू और 800 करोड का बोइंग जहाज़ पीएम के लिये खरीदना है
। इस निज़ाम को शैक्ष्रिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक हर धरोहर से चिढ है !
यह बौद्धिक बौनापन है लेकिन वो ये भूल जाते है कि बौनापन आनुवंशिक बीमारी है उपलब्धि नहीं !!
देश की अस्मिता के प्रतीक होटल अशोक एवं जनता के पैसे से बने हर उस उपक्रम को बेचने का विरोध करिये जो मुनाफ़ा में हो कर भारत की तरक़्क़ी में सहायक है।
( आंशिक संशोधन के साथ साभार कॉपी व चेप )
Manish Singh
18 November 2018
हिस्ट्री के अनपढ़, इनको पहचानें। खास तौर पर वो, जो नेहरू पर परिवारवाद थोपने का आरोप लगाकर दुकान चलाते हैं।
बन्दा है के. कामराज। नेहरू के जमाने के कांग्रेस प्रेसिडेंट। आज जो अमित शाह की हैसियत है .. तब कामराज की थी, यह अलग बात है कि कामराज तड़ीपार नही थे। संगठन के चाणक्य थे। नेहरू मंत्रिमंडल के मंत्रियों को इस्तीफा दिलाकर संगठन में लगाने वाले कामराज, संगठन के सर्वेसर्वा थे।
तो किस्सा ये, की नेहरू मर गए। पीएम बनना चाहते थे बम्बई के घाघ नेता, वित्तमंत्री मोरारजी, जो कामराज नही चाहते थे। बनवा दिया सकेंडरी लेवल के शास्त्री जी को .. । वजन के लिए नेहरू की बेटी को उनकी सरकार में मंत्री बनाया। ये 1964 था इंदिरा सन्सद की सदस्य नही थी, तो कामराज ने राज्यसभा से भेजा।
फिर दो साल में शास्त्री भी गए। अबकी बार मोरारजी पूरी तय्यारी में थे। कामराज ने नेहरु की बेटी को फिर आगे किया, जो तब गूंगी गुड़िया कहलाती थी। कामराज ने हर प्रपंच किया और जिता दिया इंदिरा को।
कामराज जानते थे कि वह पीएम बन नही सकते। उनको अपना पिट्ठू पीएम चाहिए था। पहले शास्त्री और फिर इंदिरा को चुना, जिनकी हैसियत पार्टी में खास नही थी। अब ये आगे का इतिहास है कि इंदिरा पिंजरा तोड़ निकली। पार्टी का विभाजन किया। कामराज और उनके चेले चपाटी इतिहास के कूड़ेदान में चले गए। इंदिरा ने 1971 जीता, और दुर्गा हो गईं।
मुद्दा ये,की नेहरू ने जीते जी कभी इंदिरा को सांसद मंत्री नही बनाया,न उत्तराधिकारी घोषित किया। बाप के लिए पीए का काम जरूर करती थी। बूढ़े बाप को विधवा बेटी का इतना स्पोर्ट जायज है।
व्हाट्सप मेसेज और मोदी के भाषणों से ज्ञान लेने वाकई गधो को समर्पित है। गूंगे कांग्रेसी भी अपनी हिस्ट्री जानें, और जवाब दिया करें।
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पुनश्च, –
इन्दिरा को परिवारवाद का दोषी अवश्य कहें। कोई एतराज नही, बारी बारी दोनो बेटों को सांसद बनाया और उन्हें प्रिंस का ट्रीटमेंट मिलने लगा। लेकिन यह भी याद रहे कि उन्होंने राजीव को संगठन का काम दिया था। मंत्री नही बनाया, और न अपने बाद पीएम का पद वसीयत में लिख दिया। इंदिरा की मौत बाद धड़ाधड़ राजीव को शपथ दिलाने वाले जैल सिंह थे।
कोंग्रेस को सेलेबल नाम चाहिए। वह गांधी परिवार है। मोदी मोदी के व्यक्तिगत नारे लगाने वालों को गांधी नाम के व्यक्तिपूजन पर एतराज करने का हक नही है।
R Tripathi
अक्सर,,कुछ बेचैन “आरोपवीर” लोग जब नेहरू के विरुद्ध कुछ सिद्ध नहीं कर पाते तो इस हास्यास्पद तर्क पर उतर आते हैं कि नेहरू सिगरेट-शराब पीते थे। जैसे की किसी और ने हिंदुस्तान में ऐसा किया ही नहीं है ।
क्या कभी आपने सोचा है कि ये बातें अब आधी शताब्दी के बाद अब अचानक क्यों???
इन बातों का क्या मतलब???
जी हां नेहरू जी शराब तो नहीं पर सिगरेट जरूर पीते थे,और हां पटेल और सुभाष भी पीते थे।
नेहरू की इस आदत पर भी एक महानता छिपी है क्योंकि महामानव हर क्षेत्र मे अपने महान कदमों के निशान छोड़ जाते हैं और नेहरू की नैतिकता ही उनकी महानता थी।
किस्सा 1961 का है नेहरूजी कुछ अस्वस्थ थे और डाक्टर ने सख्त हिदायत थी कि पूरे दिन में दो या तीन सिगरेट से ज्यादा नहीं पीना है ।
उस समय वे तीनमूर्ति भवन में थे । वहां कई नौकर थे लेकिन एक हरी नाम का नौकर और एक माली दोनो ही जो कि वरिष्ठ नौकर थे और इलाहाबाद से थे उन्हें पं मोतीलाल नेहरू ने ही रखा था । अब नेहरू ने डाक्टर के जाते ही दो तीन घर में रखी सिगरेट खत्म कर दीं।
फिर उन्होंने माली से कहा कि जाओ सिगरेट ले आओ। माली ने साफ मना कर दिया।
नेहरू ने बहुत कहा लेकिन माली अपनी बात पर अड़ा रहा कि अब कल सुबह के पहले सिगरेट नहीं मिलेगी।
हताश होकर नेहरू गुस्से में बोले कि अगर तुम सिगरेट नहीं लाओगे तो क्या मैं सिगरेट नही ले पाऊंगा ?
इतना कहकर देश के प्रधानमंत्री अकेले सिगरेट लेने निकल पड़े ।
अब पूरे लुटियन जोन में न तो कोई पान की दुकान थी न ही कोई जनरल स्टोर, वे थोड़ी दूर जाकर वापस आ गये। तमतमाकर माली से बोले कि मै कल तुम्हें इलाहाबाद वापस भेज सकता हूँ।
माली ने भी धौंस दिखाते हुये कहा कि मुझे इलाहाबाद वापस भेजने के लिए उसी को लाना पड़ेगा जिसने मुझे रखा था ।
उसका मतलब था कि मोतीलाल नेहरू को।
इतना सुनकर नेहरू जी चुप हो गये और धीमे से इतना ही बोले कि अच्छा कल सुबह तो सिगरेट मिलेगी न !
हां यही नेहरू का स्वभाव था कि नौकर का भी सम्मान रखकर वो छोटे बन जाते थे क्योंकि वो बहुत बड़े थे वो आज के नेताओं की तरह नही थे।
वे विश्व के सर्वकालिक बड़े नेताओं में से एक थे । हमें गर्व है कि नेहरूजी हमारे थे।
विश्व में जितना मान सम्मान उन्हें मिला ,शायद ही किसी और को प्राप्त हुआ हो।
एक बार कुछ सेंकेड के लिये आंख बंद करके सोचिये कि अगर बंटवारा रोकने की कोशिश में जिन्ना को प्रधानमंत्री बनाने की बात जो हड़बड़ी मे गांधीजी ने की थी अगर सत्य हो गई होती ,तो जमीन भले ही ज्यादा होती हमारे पास, पर हम कहाँ होते ?? ये कल्पना करके भी सिहरन हो जाती है ।
और फिर जमीन भी कितने दिन सुरक्षित होती इसकी भी गारंटी कौन लेता ?
मनीष सिंह
जम्मू कश्मीर को लेकर ”अनन्य दीप ” से एक पुरानी पोस्ट पर चर्चा हुई। कुछ बातें, जो जरा अलग ढंग से कह रहा हूँ, आपको मजा आएगा।
1- मजे की पहली बात ये, कि पाकिस्तान ने हमला हरिसिंह की स्टेट पर किया था, इंडिया पर नही। इंडिया तो वो इलाका, बीच युद्ध मे बन गया।
2- गिलगित बाल्टिस्तान भी हरिसिंह के राज्य से अपनी मर्जी से अलग होकर पाकिस्तान में मिला। उनके सामने सिर्फ पाकिस्तान और हरिसिंह का ऑप्शन था। उसने हरिसिंह को रिजेक्ट किया, इंडिया को रिजेक्ट नही किया, सनद रहे।
3- चीन से सीमा विवाद भी, दरअसल हरिसिंह और तिब्बती सरदारों का बार्डर डिस्प्यूट है। हरिसिंह का कब्जा जहां नही था, उसे भी नक्शे में दिखाकर खुद को “हिज हाइनेस महाराजा ऑफ कश्मीर एन्ड तिब्बत” कहता था।
तिब्बत की एक भी इंच उसके खानदान ने कभी नही जीती। उसकी आखरी चौकी लद्दाख थी। अक्सई चिन का विवाद तभी से है।
टोपी नेहरू को पहनाई जाती है। कभी वामपंथी पहनाए, अब दक्षिणपंथी पहनाते है। उस वक्त विपक्ष में थे, तो उनकी कोई जिम्मेदारी नही, इस बात का बेनिफिट है उनको।
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अब जरा कश्मीरी पण्डित।
असल मे जब हरिसिंह के पुरखे गुलाब सिंह ने 1846 में अंग्रेजो से 75 लाख में कश्मीर खरीदा, वो बहुत इंफ्लेटेड हाई प्राइज था। कश्मीर का रेवेन्यू इतना नही था। लेकिन गुलाब सिंह ने हैवी कर्जे काढकर प्रोपर्टी परचेज की थी। उसकी किश्ते भारी ब्याज के साथ भरनी थी।
तो कश्मीर में टैक्स की दरें बहुत ज्यादा कर दी गयी, और उसके वसूली के लिए खूब क्रूरता होती। इसलिए कश्मीर में डोगरा राज कभी लोकप्रिय न रहा।
टैक्स की वसूली के लोकल लोग नही, बल्कि मैदानी इलाकों से लेकर गए, राजा के विश्वस्त गुमाश्ते करते थे। ये हिन्दू थे, और राजकाज में इनका ही पूरा होल्ड था। यही कश्मीरी पंडित हैं।
हांजी, ज्यादातर कश्मीरी पंडित ब्राह्मण नही होते। उस दौर में राजा के हेंचमैन याने सारे हिन्दू “पंडत” कहलाये, जैसे आप आज सारे मुसलमानों को “मुल्ला” कहते हैं।
लेकिन हर मुसलमान मुल्ला तो होता नही। ( हँय?)
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तो जैसा बताया, कश्मीरी राजा से खुश तो थे नही। जब गिलगित बाल्टिस्तान को अंग्रेजो ने, अपने अफगानी मसलों के मद्देनजर 1930 में लीज पर लिया, वहां के लोगो को राहत मिली। ये लीज 1960 तक चलती, लेकिन अंग्रेजो ने 1947 में ही होल्डाल बांध लिया।
अब वहां के लोग वापस डोगराओ के कु-शाशन में नही जाना चाहते थे। उनके बगल में पाकिस्तान था, इंडिया नही था। तो वे स्वेच्छा से पाकिस्तान से मिल गए। इसे गिलगित रेबेलियन कहते है। गूगल कीजिए।
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नेहरू ने कश्मीर को इन्टर्नेशनलाइज किया, यह आरोप है। सत्य (अगर आप समझना चाहें) तो जब हरिसिंह का राज्य खत्म होते ही, इंडिया, पाकिस्तान और चीन ने उसके अलग अलग इलाके कब्जा कर लिए, मामला उसी वक्त इंटरनेशनल हो गया था।
युद्ध से पूरा कश्मीर जीतना तीनो देशो में से किसी के लिए सम्भव नही। इसका सम्बन्ध उसके भूमि की बनावट से है, न की किसी की वीरता या कायरता से। नेहरू ये बात तब ही समझ गए थे, जो आपको अभी तक समझ नही आई है।।
लेकिन प्लस पॉइंट था हमारे साथ। कब्जाधारी तीन देशों में सिर्फ इंडिया के पास ही किसी किस्म का वैलिड डाक्यूमेंन्ट था- इंस्ट्रूमेंट्स ऑफ एक्सेशन।
इसे लेकर वो पंचायत में गए। उम्मीद थी, फैसला आराम से अपने हक में आएगा।
नही आया। क्योकि पंचायत में का अपना ही ओपनियन था। उसका मानना था, कि राज्य किसी राजा के बाप की जागीर नही, कि पट्टा लिखकर डोनेट कर दें। यह पब्लिक तय करेगी, की कौन से देश मे रहे। इसलिए रेफरेंडम होगा।
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पंचायत ने वो फैसला हमारे फेवर में नही दिया। तो हमने क्या किया??
फैसले को कूड़े में फेंक दिया।
घण्टे का इन्टर्नेशनलाइज?
Rakesh Kayasth
सेल्समैन नहीं समझ पाएंगे स्टेट्समैन नेहरू को
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नेहरू मेमोरियल का नाम बदलने की ख़बर पर नज़र पड़ी। अब यह पीएम म्यूजि़यम कहलाएगा और पीएम मोदी इसका उद्घाटन अंबेडकर जयंती के दिन करेंगे। नाम बदलना और अंबेडकर की छाया को आगे करके प्रतीकवाद की लड़ाई को नये स्तर तक ले जाना। यकीनन मोदी के समर्थकों को इससे एक अलग तरह का किक मिलेगा।
नेहरू मेमोरियल यानी एक ऐसे व्यक्ति के स्मृतियों का केंद्र जिसने शुरुआती 17 साल तक भारत का नेतृत्व किया।नेहरू ने तमाम लोकतांत्रिक संस्थाओं की नींव डाली और उन्हें मजबूत किया। आधुनिक शिक्षा से जुड़ी अनगिनत ऐसी संस्थाएं बनाईं जिन्होंने वैज्ञानिक दृष्टि बोध से लैस कई पीढ़ियां तैयार कीं।
लोक स्मृति से नेहरू का नाम खुरच-खुरचकर मिटाये जाने की प्रक्रिया मौजूदा सरकार के लिए आसान नहीं बल्कि हुत कष्टसाध्य है। ज़रा सोचिये कितना पैसा, समय और दिमाग़ लग रहा होगा।
नाम मिटा देने की इस पूरी प्रक्रिया को आखिरकार इतिहास किस तरह देखेगा। इतिहास इसी तरह गिनेगा कि नेहरू ने क्या-क्या बनाया और मोदी ने क्या-क्या मिटाया।
नेहरू ने जिस समावेशी राजनीति की बुनियाद डाली थी कि उसकी मिसाल उस दौर की पूरी दुनिया में कहीं और नहीं मिलती है। वामपंथी, दक्षिणपंथी, और मध्यमार्गी हर तरह के लोग नेहरू के मंत्रिमंडल मिलेंगे। ऐसे सांसद भी मिलेंगे जो संसद में अपनी ही पार्टी के प्रधानमंत्री की नीतियों पर प्रहार करनेे की क्षमता रखते थे।
नेहरू से लड़ने के लिए जिन ऐतिहासिक व्यक्तित्वों की मदद ली जा रही है वे सब किसी ने किसी रूप में नेहरू के साथी या साझीदार रहे हैं। यही बात साबित करती है कि भारतीय राजनीति में नेहरू के होने का क्या मतलब था।
नेता वही बड़ा होता है जो स्टेट्सनशिप करता है सेल्समैनशिप नहीं। स्टेट्समैन तर्क को बढ़ावा देता है, अक्सर धारा के विपरीत चलता है और यह ये सोचता है कि वह जिस देश का पहरुआ है, अगले पचास सौ साल में उसके लोगों की सोच और भविष्य किस तरह के होंगे।
सेल्समैन हर चीज़ बेचता है क्योंकि व्यापार उनके खून में होता है। वह समाज में व्याप्त भावनाओं को भुनाता है। लोक मानस का इस तरह मनोनुकूलन करता है कि वे स्थायी रूप से अनुचर बनें रहें, सत्ता से कभी कोई सवाल ना पूछें।
नेहरू के लिए सबसे ज्यादा आसान होता कि आज़ादी के बाद वे एक और हिंदू पाकिस्तान बना देते या संसदीय लोकतंत्र के बदले व्यक्ति पूजक प्रेंसिडेंशियल फॉर्म ऑफ गर्वमेंट लागू कर देते। नेहरू अगर सेल्समैन होते तो वह सब करते जो बंटवारे का दंश झेल चुके बहुसंख्यक समाज के मनोनुकूल होता। लेकिन उन्होंने नफरत के बदले सकारात्मकता को चुना।
नेहरू के किसी भाषण में इतिहास का रोना नहीं मिलेगा, सिर्फ भविष्य की संकल्पना मिलेगी। नेहरू ने इंसान के भीतर की बुनियादी अच्छाई पर यकीन किया और एक ऐसे समाज की रचना की जिसे बरसों की कोशिश के बावजूद स्थायी रूप से किसी नफरती समूह में नहीं बदला जा सका है। संघ की सबसे बड़ी पीड़ा यही है।
यह एक दिलचस्प तथ्य है कि जिन इंदिरा गाँधी ने इमरजेंसी के दौरान संघियों की सबसे ज्यादा कुटाई-पिटाई की, उन्हें लगभग रौंद दिया और माफीनामा लिखने को मजबूर किया, उन इंदिरा गाँधी को लेकर नफरत का भाव नहीं है। नफरत नेहरू से है क्योंकि असल में नफरत एक उदार, वैज्ञानिक ,समावेशी और लोकतांत्रिक समाज के मॉडल से है।
क्या नाम मिटा देने भर से लोक स्मृति हमेशा के लिए स्थायी रूप से बदल जाएगी। ऊपरी तौर पर देखने से ऐसा लग सकता है लेकिन असल में ऐसा होता नहीं है। किसी भी इतिहास से विस्थापित नहीं किया जा सकता, ठीक उसी तरह जिस तरह किसी को जबरन स्थापित नहीं किया जा सकता है।
एक छोटा सा उदाहरण देता हूँ। कांग्रेस की सरकारों ने आज़ादी के बाद से लगातार इस बात की कोशिश की कि गाँधीजी को दलितों के सबसे बड़े हित चिंतक के रूप में स्थापित किया जाये और अंबेडकर की छवि संविधान निर्माण तक सीमित कर दी जाये। लेकिन क्या ऐसा हो पाया?
2014 के बाद से नेहरू की किताब डिस्कवरी ऑफ इंडिया जिस तरह बिकी है, उतनी शायद पहले कभी नहीं रही। युवा पीढ़ी भी यह जानना चाहेगी कि जिस एक व्यक्ति के खिलाफ नफरत का इतना बड़ा और व्यवस्थित कैंपेन चलाया जा रहा है, आखिर उसकी सोच क्या थी।
तमाम संस्थाओं से नेहरू के नाम मिटा दिये जायें, सारी मूर्तियां तोड़ दी जायें लेकिन दिल के किसी एक कोने में भी जहां कहीं लोकतांत्रिक मूल्य जीवित होंगे वहाँ नेहरू मिल जाएंगे। असहमति और विरोध को चरम घृणा में बदल देना नये भारत की पहचान है लेकिन ये याद रखना चाहिए कि असहमति का पहला पाठ नेहरू ने ही इस देश को पढ़ाया था।
Vishwa Deepak
पंडित नेहरू जिनकी मुरीद दुनिया थी, वो राहुल सांस्कृत्यायन के मुरीद थे. “इलाहाबाद स्कूल ऑफ थॉट” से निकलने वाला हर शख्स इस बात को जानता है.
पंडित जी दूसरे महापंडित यानि राहुल सांकृत्यायन की घुमक्कड़ी, दर्शन, ज्ञान की वजह से खुद को उनके सामने कमतर ही पेश करते थे. यह नेहरू का बड़प्पन था जबकि नेहरू खुद शानदार लेखक और साहित्य, कला, इतिहास के गहन अध्येता थे.
सोचिए क्या दौर रहा होगा जब सांकृत्यायन मुख्य वक्ता होते थे और नेहरू कार्यक्रम के अध्यक्ष. ऐसे ही (इलाहाबाद विश्व विद्यालय) के किसी कार्यक्रम में जब राहुल सांकृत्यायन बोल चुके तो नेहरू ने कहा कि अब मैं क्या बोलूं. बस यही समझने की कोशिश कर रहा हूं कि अतीत का इतना महान अध्येता कैसे भारत के सुंदर और समतावादी भविष्य की बुनियाद रखने के लिए फिक्रमंद है.
आशय यह था कि वह महान अध्येता (राहुल सांकृत्यायन) इतिहास की अंधेरी कंदराओं में फंसा नहीं बल्कि भविष्य का उजाला निहार रहा है. इतिहास के साथ यह दिक्कत है कि कई बार वह बेताल की तरह आपकी पीठ पर सवार हो जाता है. फिर उतरता ही नहीं.
आज के राजनीतिक हालात देखकर, नेहरू के इस कथन का महत्व बहुत अच्छे से समझा जा सकता है. नेहरू के वक्त भी भारत के सामने कमोबेश वही चुनौतियां थीं जो आज हैं.
उसी सभा में किसी ने कहा कि राहुल जी तो अतीत, इतिहास, धर्म, संस्कृति आदि में ही फंसकर रह गए. पार नहीं जा पाए.
राहुल की तरफ से नेहरू ने जवाब दिया,कहा – इस पार से उस पार जाने की चिंता कुएं का मेंढक करता है. समंदर में तैरने वाला तो बस तैरता जाता है.
राहुल सांकृत्यायन के बारे में हज़ार लाइनें लिखी जा सकती हैं लेकिन अगर चंद लाइनों में कहना हो तो मैं यही कहूंगा कि सांकृत्यायन ने अपना विवेक गिरवी नहीं रखा. अपनी आत्मा को स्वतंत्र, मुक्त और हर तरह की गुलामी से बचाकर रखा. कई धर्मों का अध्ययन किया लेकिन धार्मिक नहीं हुए.
“तुम्हारे धर्म की छय”
“दिमागी गुलामी” जैसी रचनाएं उनकी रचनात्मकता के इसी पक्ष की द्योतक हैं.